प्रसंगवश : सम्बन्धों की जीवन-दृष्टि
जीवन एक विलक्षण उपहार है, जिसका कोई विकल्प नहीं है. पर यह अद्भुत उपहार बड़ा नाजुक है, इसलिए इसकी संभाल भी जरूरी है.
गिरिश्वर मिश्र, लेखक |
साथ ही यह कालबद्ध है, यानी इसकी समय सीमा भी तय है. किसी का भी जीवन अनंतकाल तक के लिए नहीं है. पर जीवन इतना प्यारा है कि कोई इसे छोड़ना नहीं चाहता. हर कोई अपनी नरता को किसी भी युक्ति से झुठलाना चाहता है. मानव सभ्यता के इतिहास में नर को अनर बनाने की जद्दोजहद बड़ी पुरानी है और नरता के इस अनुभव से जूझने के लिए अर्थ के स्तर पर एक साझे की संस्कृति-दृष्टि का निर्माण किया जाता है. आसन्न मृत्यु का आतंक एक क्रूर वास्तविकता है, जिसकी मौजूदगी में कुछ भी करना संभव नहीं है.
तभी यह कामना की गई- मृत्योर्मामृतंगमय- मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो. अत: यह स्वाभाविक था कि मृत्यु का प्रतिकार ही जीवन में सबसे बड़ा प्रेरक बन कर उपस्थित हो. चूंकि मृत्यु अवश्यंभावी है, इसलिए उसकी भावना किसी भी भावी लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने में बाधक होती है, यदि उसे किसी तरह से व्यवस्थित न किया जाए तो मृत्यु भय और उससे उपजी असुरक्षा से उबरने के लिए ही मानव बुद्धि ने जीवन और जगत के लिए खास तरह का नजरिया विकसित किया, जो मृत्यु के पार ले जा सके. इस क्रम में ईश्वर, आत्मा, स्वर्ग और पुनर्जन्म जैसी अत्यंत प्रभावशाली अवधारणाओं को विकसित किया गया. लगभग सभी मतों में इन अवधारणाओं को बनाए रखने और उनमें गहरी आस्था स्थापित करने की प्रभावी और भरपूर व्यवस्था की गई. इस बहाने अस्तित्व पर छाए मृत्यु के आतंक और अनिश्चय के साये में जीवन जीने का रास्ता ढूंढा गया. इससे लोगों में भरोसा, आपसी निकटता, जुड़ाव-लगाव और सौहार्द भी बढ़ा.
नर जीवन में संस्कृति के द्वारा अमरता की व्यवस्था दो तरह से की गई. एक ओर जीवन को विस्तृत करने के लिए यह विश्वास भरा गया कि देह का नाश जीवन का अंत नहीं है. इसके लिए शरीर से अलग आत्मा का शात और अमर अस्तित्व माना गया, मृत्यु के उपरांत भी जीवन की संकल्पना की गई और पुनर्जन्म का विचार लाया गया. दूसरी ओर स्वयं को किसी दीर्घजीवी उपस्थिति के माध्यम से प्रतीकात्मक स्तर पर ही सही जीवन को विस्तृत करने की व्यवस्था की गई.
इस दृष्टि से परिवार, समुदाय और देश, उपलब्धि, विचार या फिर किसी स्मारक द्वारा जीवन का विस्तार किया जाता है. संस्कृति में व्याप्त इस तरह के विश्वासों और प्रथाओं को अपना कर जीवन की अर्थवत्ता को बढ़ाया जाता है और अपने लिए गौरव बोध को सुरक्षित किया जाता है. आत्म गौरव व्यक्ति को सुरक्षा कवच प्रदान करता है. आत्म गौरव की की पुष्टि दूसरों के साथ साझा कर की जाती है और भिन्न विचारों और उन्हें मानने वालों के प्रति नकारात्मक रवैया अपनाया जाता है.
सामाजिक क्षेत्र में आज पारस्परिक रिश्तों में भरोसा और रिश्तों को निभाना आज बड़ी चुनौती बन रही है. आपसी रिश्तों में दरार बढ़ रही है और उसे उपकरण बना कर दोहन करने की प्रवृत्ति तीव्र होती जा रही है. आज मीडिया और विज्ञापन स्त्री को अधिकांशत: वस्तु बना कर व्यापारिक लाभ कमाने के लिए पेश कर रहे हैं. उससे दर्शक के मन में जो काल्पनिक वृत्तियां उकसाई जाती हैं, वे स्त्री को मात्र भोग्य पदार्थ बनाती प्रतीत होती हैं. हमारे दैनिक अखबार इस प्रवृत्ति से पनप रही दुर्घटनाओं से अटे पड़े रहते हैं. घर, बाहर और कार्यस्थल पर यौन-शोषण की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं. स्त्रियों के साथ भेदभाव अभी भी बड़े ही क्रूर ढंग से दिख रहा है. कन्या-भ्रूण हत्या, अशिक्षा, दहेज, बाल-विवाह, विश्वासघात, तलाक और रिश्तों में अविश्वास के साथ स्त्री का जीवन शोषण का पर्याय हुआ जा रहा है. स्त्री की आजादी और अधिकार अभी भी दूर की कौड़ी ही लगती है. हमारी दृष्टि चूक रही है.
जीवन सम्बन्धों की कहानी है और सम्बन्ध अपने से अलग दूसरे के बारे में कैसे सोचते हैं, इस पर निर्भर करता है. दूसरा चाहे जो हो पशु हो, वृक्ष हो या मनुष्य हो हमसे कुछ अपेक्षा करता है. मैं और पर, मेरा और पराया एक दूसरे पर निर्भर हैं और पूरक की तरह कार्य करते हैं. इसका आधार समानुभूति होती है. हम अपने को जैसा देखना चाहते हैं, अपने साथ जैसा व्यवहार चाहते हैं, वह समानुभूति का आधार हो सकता है. अपनी ही तरह दूसरों को देखना जरूरी है. तभी दूरियां कम होंगी, संवाद हो सकेगा और जीवन की रक्षा हो पाएगी.
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