परत-दर-परत : क्या जनता हमेशा सही होती है

Last Updated 12 Mar 2017 04:43:26 AM IST

पांच विधान सभा चुनावों के परिणाम एक मामले में बेहद चिंताजनक हैं. परिधि के तीन राज्यों-गोवा, मणिपुर और पंजाब-में भाजपा हार गई है और जिसे भारत का हृदय प्रदेश कहा जाता है, उस उत्तर प्रदेश में भाजपा अच्छी तरह जीती है.


परत-दर-परत : क्या जनता हमेशा सही होती है

यदि कुछ अन्य राज्यों पर निगाह डालें, जैसे पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, तो हम पाते हैं कि भाजपा वहां भी पैर नहीं जमा पाई है. हृदय और परिधि के बीच यह अंतर्विरोध जाहिर करता है कि इस समय दो समानांतर विचारधाराएं काम कर रही हैं.

भाजपा दावा कर सकती है कि भारत के मध्य में स्थित मध्य प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा में भी उसकी सरकार है,अत: भारत की मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व वही करती है. लेकिन यही तो खतरा है. अगर भारत के परिधि-राज्य भाजपा को शक की निगाह से देखने लगे हैं, तो इसका मतलब यह भी निकलता है कि जिसे हम भारत की मुख्यधारा समझते हैं, वह सिर्फ  मध्य भारत को ही प्रभावित करता है. इसके साथ पश्चिम भारत को भी जोड़ा जा सकता है, जहां गुजरात और महाराष्ट्र में भाजपा का शासन है. लेकिन इससे भी समस्या कुछ और गंभीर होती है, क्योंकि दो-तिहाई भारत और एक-तिहाई भारत के बीच अंतर्विरोध बना रहता है, तो यह लोकतंत्र के लिए शुभ शकुन नहीं है.

यह सच है कि उत्तर प्रदेश में, जहां वह सोलह साल से सत्ता से बुरी तरह बाहर है, भाजपा की इतनी भारी जीत की आशंका देश का प्रबुद्ध वर्ग नहीं कर रहा था. उसमें से कुछ की शुभेच्छा थी कि सपा-कांग्रेस की सरकार बने और जो अपने को ज्यादा प्रगतिशील मानते हैं, वे चाहते थे कि मायावती एक बार फिर मुख्यमंत्री बनें. यह देश का दुर्भाग्य उत्तर प्रदेश की सेकुलर राजनीति बस यहीं तक आ पाई है. लेकिन भाजपा की संकीर्णतावादी राजनीति ने इन दोनों को पीछे छोड़ दिया है. यह राष्ट्र के समावेशी भविष्य के लिए बहुत ही खतरनाक है. जनादेश शिरोधार्य है, यह कहते हुए भी यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि जनता हमेशा सही नहीं होती.

अमेरिका में ट्रंप की राजनीति भी, जिससे भारत सहित दुनिया भर के लोग विचलित हैं, बहुमत के आधार पर ही सत्ता में आई है और नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व के बारे में भी यही कहा जा सकता है. लेकिन दोनों में एक फर्क है. ट्रंप सचमुच, बेशक अपने तरीके से, अमेरिका की फिक्र करते प्रतीत हो रहे हैं, लेकिन मोदी की वाणी में साधारण जनता के लिए जो जादू है, उसके मुकाबले उनकी सरकार की उपलब्धियां कहीं नहीं ठहरतीं. अगर विकास का दावा थोड़ा भी सही होता, तो मोदी को कब्रिस्तान-श्मशान और ईद-दीवाली की तुलना नहीं करनी पड़ती. न गाय को केले खिलाने पड़ते.

भाजपा सांप्रदायिक है या मोदी तानाशाह हैं, इससे बहुसंख्यक हिंदू जनता को ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि दोनों के ही तत्व हिंदू जन मानस में भीतर तक धंसे हुए हैं. इंदिरा गांधी में भी तानाशाही के सशक्त तत्व थे, पर 1977 को छोड़ कर जब यह तानाशाही अति के बिंदु पर आ गई थी, देश की जनता ने इंदिरा गांधी को बड़े पैमाने पर कभी खारिज नहीं किया. पश्चिम बंगाल में भी वामपंथियों की तानाशाही को तीन दशकों तक सहा गया. इसके साथ ही, सांप्रदायिकता देश के एक छोटे-से प्रगतिशील बुद्धिजीवी के लिए एक बड़ा खतरा है, पर आम हिंदू को, जो मूलत: भोला-भाला है और सतही समीकरणों में जीता है, इससे कुछ खास दिक्कत नहीं है, यह कई-कई बार पुष्ट हो चुकी है. उत्तर प्रदेश में पहली बात भाजपा की सरकार जब बनी थी, जब एक अराजक भीड़ ने सेकुलरिज्म का प्रतीक बन चुकी बाबरी मस्जिद को नेस्तनाबूत कर दिया था.

लेकिन जनता हमेशा सही नहीं होती, तो वह हमेशा गलत भी नहीं होती. भारत का भविष्य किधर है, यह सोचने की जिम्मेदारी सिर्फ  जनता की नहीं है, देश के राजनीतिक दलों की भी है. उत्तर प्रदेश की सेकुलर पार्टयिां जनता की आशा-आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरी हैं. शायद इसीलिए मतदाताओं ने उनका स्पष्ट रूप से तिरस्कार किया है. वह बुरा है, इसलिए हम अच्छे हैं, यह तर्क न तो जीवन में दूर तक चलता है न राजनीति में. इस बात पर जोर देने की जरूरत है कि जैसे मोदी का निर्वाचित होना मनमोहन सिंह के मूक शासन के विरु द्ध विद्रोह था, वैसे ही भाजपा की वर्तमान जीत सेकुलर राजनीति की सीमाओं पर एक सख्त टिप्पणी है. हम बहुत समय से यह जानते हैं कि भारत में सकारात्मक वोट कम होता है, नकारात्मक वोट ज्यादा.
लेकिन सब से बड़ी चिंता की बात यह है कि क्या हमारे देश में आधुनिकता की परियोजना विफल हो गई है?

गांधी जी ने हमें जो कुछ सिखाया था, अब उसका सिर्फ  पुनरु द्धार ही हो सकता है, लेकिन भगत सिंह, सुभाष, नेहरू, लोहिया, नरेन्द्र देव और जेपी जिन चीजों के प्रतीक थे, क्या वे भी प्रासंगिक नहीं रहीं? क्या भारत फिर उस युग की ओर लौटने के लिए लालायित है जब यहां के आसमान में पुष्पक विमान उड़ा करते थे और देवता के धड़ में हाथी का सिर जोड़ देने को आयुर्वेद का चमत्कार माना जाता था? मेरा विनम्र निवेदन है कि भारत में जो आधुनिकता अंग्रेजी के माध्यम से आई, वह यथार्थ नहीं, मिथक थी और अब उस अपरिचित मिथक का स्थान एक परिचित मिथक ले रहा है. नेहरू ने भारत की जो खोज की थी, वह अधूरी साबित हुई है. अब हमें नये सिरे से अपने भारत को खोजना होगा और उसका प्रतिनिधित्व करने के लिए सच्ची लोकतांत्रिक ताकतों का आह्वान और निर्माण करना होगा.

राजकिशोर
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment