बट्टे खातों की राजनीति
केंद्रीय वित्त मंत्री सीतारमण ने संसद में बताया कि बीते दस सालों में बैंकों ने 16.35 लाख करोड़ रुपये बट्टे खाते में डाले हैं। गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) को बैंक बट्टे खाते में डालते हैं।
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आंकड़ों के अनुसार 2014-15 में यह रकम लगभग 59 हजार करोड़ थी, जो 2023-24 में 1.70 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो गई। सदन में बड़े कर्जदारों और औद्योगिक घरानों के लिए बट्टे खातों में डाले गए कर्ज के बारे में प्रश्न पूछे गए थे। वित्त मंत्री ने स्पष्ट किया कि बट्टे खाते में डालने से उधारकर्ताओं को देनदारियों में छूट नहीं मिलती। अलबत्ता, यह जरूर कहा कि कर्ज और बट्टे खाते में डाले गए कुल एनपीए का वषर्वार ब्योरा रखा जाता है।
यह राशि बट्टे खाते में डाली गई कुल राशि का लगभग 57% है। हालांकि कंपनियों के नाम पर आरबीआई अधिनियम, 1934 की धारा 45ई के तहत उधारकर्ता का खुलासा निषिद्ध है। लेकिन बैंकों की तरफ से देय राशि की वसूली के संबंध में उधारकर्ताओं को लगातार फोन किया जाता है, और पत्र/ईमेल भी भेजे जाते हैं। राशि के आधार पर बैंक कॉरपोरेट उधारकर्ताओं के दीवालियापन समाधान के लिए कंपनी लॉ न्यायाधिकरण से भी संपर्क करता है।
समय-समय पर सरकार के पक्षपाती रवैये पर ऋणमाफी को लेकर आरोप भी लगते रहते हैं जबकि इसकी तुलना में 2008 में यूपीए सरकार द्वारा मात्र 60 हजार करोड़ रुपये की कृषि माफी से की जा सकती है। सोलह लाख करोड़ रुपये से अधिक की राशि मोदी सरकार के कार्यकाल में बट्टे खाते में डाली गई, जो साल-दर-साल बढ़ती नजर आ रही है। सिर्फ बैंकों के बही-खातों को दुरुस्त रखने या मोटी राशि बट्टे खातों में छिपाने से अर्थव्यवस्था प्रधानमंत्री के दावों पर खरी नहीं उतर सकती।
जैसा कि सीतारमण ने स्वीकारा भी कि ऋण की देनदारी बनी रहती है, मगर सरकार को सख्त नियम लागू करने में देर नहीं करनी चाहिए। असल सवाल है कि इस विशाल धनराशि के बट्टे खाते में डाले जाने का नुकसान किसको उठाना होगा।
बैंकों पर ठीकरा फोड़ना मात्र मन-बहलाव है क्योंकि वे तो धन-प्रबंधक भर हैं। उद्योगपतियों की आर्थिक आपराधिक गतिविधियों का खमियाजा अंतत: देश को भुगतना पड़ता है। बड़े औद्योगिक घरानों का पक्ष लेने और उनकी ऋणमाफी से सरकार जमाकर्ताओं को ज्यादा देर धोखा नहीं दे सकती। अब बैंकों की कंगाली और उनके साथ आर्थिक धोखाधड़ी की घटनाओं से सीख लेनी जरूरी है।
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