कक्षा 5 व 8 के छात्रों को अनुत्तीर्ण न करने की नीति खत्म
केंद्र सरकार ने कक्षा 5 व 8 के छात्रों को अनुत्तीर्ण न करने की नीति को खत्म कर दिया। शिक्षा के अधिकार कानून में बदलाव करके सरकार ने इसे 2019 में ही अधिसूचित कर दिया था।
बदल गए नियम |
मगर देश के सोलह राज्य व केंद्र शासित प्रदेश इसे अपनाये हुए हैं, जिनमें उप्र, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, केरल, अरुणाचल, तेलंगाना, ओडीशा व गोवा शामिल हैं। अधिसूचना में कहा है, यदि पुन: परीक्षा में बैठना वाला छात्र पदोन्नति के मानदंडों को पूरा करने में असफल होता है तो उसे पांचवी या आठवीं में ही रोक दिया जाए। यह भी स्पष्ट किया है कि किसी छात्र को प्रारंभिक शिक्षा पूरा होने तक विद्यालय से निष्कासित नहीं किया जा सकता।
केंद्रीय विद्यालयों, नवोदय व सैनिक स्कूलों सहित सरकार द्वारा संचालित तीन हजार से ज्यादा स्कूलों में पर यह लागू होगा। इसमें विद्यालय को जिम्मा दिया गया है कि वह पढ़ने में कमजोर छात्रों की सलीके से मॉनीटरिंग हो और इनकी कमजोरी को चिह्नित कर अभिभावकों की मदद से विशेष ध्यान दिया जाए। बाल शिक्षा अधिकार 2009 के अनुसार प्राथमिक शिक्षा में छात्रों को अनुत्तीर्ण करने पर रोक थी, जिसमें संशोधन करके उत्तीर्ण न होने वाले छात्रों को दोबारा परीक्षा देने का मौका दिया जाने लगा।
हालांकि शिक्षा नीति बनाना राज्यों का काम है। मगर शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर लंबे समय से सवाल उठाये जा रहे थे। वंचित, ग्रामीण क्षेत्रों के तथा औसत से कम समझ वाले छात्रों के लिए यह नीति बाधक बन सकती है। यह स्वीकारने में कोई परहेज नहीं होना चाहिए कि अपने यहां शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर ठोस कार्य नहीं होते। पढ़ाई को न केवल जटिल बना दिया गया है बल्कि समूची पद्धति नीरस और स्तरहीन भी है। उस पर शिक्षकों की कमी तथा उनके पढ़ाने के तरीके भी बेहद पारंपरिक हैं।
शिक्षा का अधिकार जितना अहम है, उतना ही उसकी गुणवत्ता में कंट्रोल जरूरी है। छात्रों को अनुत्तीर्ण करने के कारण परिवार उन्हें स्कूल भेजना ही बंद कर देते हैं। इस पर विशेष ध्यान देना होगा। नि:संदेह सरकार का प्रयास है, शिक्षा प्रणाली में व्यापक बदलाव लाया जाए।
विद्यार्थियों की चेतना में परीक्षाओं के दबाव, नतीजों के प्रतिशत व अनुत्तीर्ण होने का गहरा असर होता है। मेधावी व कमजोर छात्रों को पढ़ाने के तरीकों में बदलाव और निरंतर प्रयास से इस दबाव को कम किया जा सकता है। शिक्षा का तात्पर्य ज्ञान देना हो, न कि जबरन भयभीत करना या स्कूली शिक्षा का हौव्वा बनाना।
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