सदन में निर्थक चर्चा
देश में संविधान के 75 वर्ष पूरे होने पर संसद के दोनों सदनों में सत्तारुढ़ गठबंधन और विपक्ष के बीच एक बार फिर टकराव, तीखी बहस और एक बार फिर टकराव देखने को मिला।
सदन में निर्थक चर्चा |
इस ऐतिहासिक अवसर पर यदि दोनों पक्ष चाहते तो संविधान और उसके महत्त्व पर एक सार्थक बात हो सकती थी, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ।
विडंबना देखिए कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों संविधान की सर्वोच्चता में विश्वास प्रकट करते हैं, लेकिन दोनों ही उसे कमजोर करने का एक दूसरे पर आरोप लगाते रहे। लोक सभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और सत्ता पक्ष के दूसरे नेताओं ने संविधान के प्रति पूरी निष्ठा प्रदर्शित की और कांग्रेस पार्टी पर संविधान को कुचलने और कमजोर करने का आरोप लगाया जबकि दूसरी ओर राहुल गांधी ने भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी पर संविधान, लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों की अनदेखी का आरोप लगाया।
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में संविधान अनुच्छेद 370 सहित समान नागरिक कानून संहिता आदि मुद्दों पर चर्चा करते हुए गांधी परिवार को निशाना बनाया और पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर समिति इंदिरा गांधी तक को संविधान पर कुठाराघात करने के लिए कठघरे में खड़ा किया।
राज्य सभा में भी संविधान पर बहस के दौरान इसी तरह का दृश्य नजर आया। राज्य सभा में चर्चा के दौरान केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन के बीच तीखी बहस हुई। लोक सभा और राज्य सभा दोनों सदनों में वक्ताओं ने अपनी बात रखते हुए इतिहास और अतीत के पात्रों का सहारा लिया। जाहिर है ऐसे संवादों से प्रचारगत रणनीति का पलड़ा भले भारी हो सकता है, लेकिन इससे संविधान और लोकतंत्र का भला नहीं हो सकता।
लोकतंत्र में संविधान एक ऐसा महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है जो नागरिकों के अधिकारों का रक्षक माना जाता है। संविधान के इन 75 साल के इतिहास में कई अवसर ऐसे भी आए हैं जब अपनी कुर्सी और सत्ता के लिए इसका बेजा इस्तेमाल करने की कोशिश की। इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में आपातकाल थोपना और उसके बाद संविधान का 42 वां संशोधन ऐसा ही अधिनायकवादी कृत्य था। बहस तो इस बात पर होनी चाहिए थी कि देश के गरीब नागरिकों को न्याय कैसे मिले, प्रशासनिक तंत्र को इतना पारदर्शी और न्यायपूर्ण कैसे बनाया जाए कि गरीब और अमीर के बीच भेद-भाव समाप्त हो। कहा जा सकता है कि संसद में संविधान पर चर्चा निर्थक साबित हुई?
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