अवैध कब्जों की राजनीति
सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने बिना पूर्णता और अधिवास प्रमाणपत्र के फ्लैट या मकान पर कब्जा न देने का सभी राज्य सरकारों को निर्देश दिया है। मानचित्र पास करते समय ही बिल्डर या प्लॉट के मालिक से इसका वचन-पत्र लिया जाए।
अवैध कब्जों की राजनीति |
इस प्रमाणपत्र के आधार पर ही बिजली-पानी, सीवर का कनेक्शन दिया जाए। बैंकों से भी कहा है कि स्वीकृत मानचित्र वाली प्रापर्टी पर ही कर्ज दिया जाए। उप्र के मेरठ के शास्त्री नगर में रिहाइशी प्लाट पर दुकानों के निर्माण पर सख्त कार्रवाई का आदेश देते हुए कई दुकानें ढहाने का आदेश भी शीर्ष अदालत ने दिया।
अदालत ने 2014 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को जायज बताते हुए कहा कि बिना आवास विकास के इंजीनियरों की मिलीभगत के इतने बड़े स्तर पर अवैध निर्माण संभव नहीं। अवैध कब्जों के प्रति सरकारी रवैया ढुलमुल रहा है। मकान पर कब्जा देने संबंधी जो निर्देश शीर्ष अदालत ने दिए, वे पहले भी नियमों में शामिल हैं।
मगर सरकारी लापरवाही और विभागों की मिलीभगत के चलते उनकी अनदेखी होती है। इसके लिए तत्कालीन सरकार भी अधिकारियों के साथ दोषी है। अवैध निर्माण को गिराना हमेशा समस्या का समाधान नहीं होता। तथाकथित अवैध मालिकान, जो इन प्रापर्टियों को अपना बता कर बेच गए, से वसूली कैसे होगी।
क्या सारा खमियाजा सिर्फ वर्तमान अवैध मालिकों को भोगना होगा। आवास विकास परिषद भू-माफिया के साथ मिलीभगत कर सरकारी जमीनों पर साजिशन कब्जे करवाती है। जिन कब्जेदारों को जमीनें नियमित करवाने का पल्रोभन दे कर राजनीतिक दल अपने मकसदों में कामयाब होते हैं।
बेशक, सरकारी जमीनों पर अवैध कब्जों को लेकर राजनीतिक दल अपने वोट बैंक को प्राथमिकता देकर ही बात करते हैं। निस्संदेह किन्हीं कारणों या आपसी झगड़ों के चलते यह मामला कानून की नजरों में आया होगा परंतु जिन तमाम जमीनों पर पुश्तों से अवैध कब्जे हैं, उन्हें मुक्त कराने के प्रति सरकारें लापरवाह क्यों हैं?
उन्हें अपनी जमीनों का लेखा-जोखा सुव्यवस्थित रखने के प्रति जवाबदेह क्यों नहीं होनी चाहिए। उन अवैध कब्जेदारों को छूट मिलनी चाहिए जो कानून के शिकंजे से दूर रह गए हैं।
सरकारी महकमों को अवैध कब्जों के प्रति जवाबदेह बनाने का जिम्मा अदालत ही निभा सकती है वरना तो खुद सरकारें हमेशा यूं ही आंखें मूंदे रहेंगी।
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