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नागरिकों के संपत्ति के अधिकार पर दूरगामी प्रभाव डालने वाला सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों की बेंच ने दो के मुकाबले सात के बहुमत से ऐतिहासिक फैसला सुनाया कि संविधान के अंतर्गत सरकारों को जन कल्याण के लिए हर निजी स्वामित्व वाले संसाधन को अधिगृहित करने का अधिकार नहीं है।
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शीर्ष अदालत के इस फैसले से ध्वनित होता है कि विश्व व्यवस्था बदल रही है, देश की अर्थव्यवस्था बदल रही है और इसी के साथ निजी संपत्ति रखने से संबंधित विचार भी बदल गए हैं। इसे दूसरे अथरे में कहा जा सकता है कि अदालत ने इस फैसले ने देश के संसाधनों पर राज्य के नियंत्रण को शिथिल किया है।
सत्तर और अस्सी के दशकों में रूस, चीन समेत पूर्वी यूरोप के अनेक देशों में समाजवादी-मार्क्सवादी सरकारें थीं जिनका विश्वास था कि गरीबी और असमानता को दूर करने के लिए संपत्ति का पुनर्वितरण आवश्यक है। लिहाजा, सरकार को यह अधिकार होना चाहिए कि वह जनकल्याणकारी कार्यों के लिए किसी की भी संपत्ति का अधिग्रहण कर सके। जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी का समाजवादी विचारों के प्रति विशेष आकषर्ण था।
इंदिरा गांधी ने इसी विचार से प्रेरित होकर बैंकों का राष्ट्रीयकरण और राजाओं के प्रिवी पर्स के अधिकार को निरस्त किया था। आपातकाल के दौरान संविधान के 42वें संशोधन के जरिए संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों को जोड़ा गया था। शायद इसी पृष्ठभूमि में 1978 में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आया होगा कि सरकार सभी निजी संपत्तियों का जनहित में अधिग्रहण कर सकती है।
प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने पिछले फैसले को पलटते हुए कहा कि पुराना फैसला विशेष आर्थिक और समाजवादी विचारों से प्रेरित था। हालांकि संविधान पीठ के दो जजों ने अलग से अपना फैसला दिया। जस्टिस वीवी नागरत्ना ने पीठ के सात जजों से आंशिक तौर पर असहमति व्यक्त की जबकि जस्टिस सुधांशु धुलिया ने सात जजों के फैसले के सभी पहलुओं से असहमति जाहिर की। बहरहाल, समाज परिवर्तनशील है।
बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में संपत्ति के अधिकार के नये सिद्धांत विकसित हो रहे हैं। परिवर्तन का स्वागत करने वाला समाज ही गतिशील और आगे बढ़ता है। सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए।
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