सरकारी रिक्तियों पर मनमानी
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा है कि सरकारी नौकरी की प्रक्रिया चालू होने के बाद नियमों में बदलाव नहीं किया जा सकता।
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मामले में नौकरी से जुड़ी लिखित परीक्षा और साक्षात्कार के उपरांत 75% नंबर पर नियुक्ति का नियम बना दिया गया था। मामला राजस्थान हाई कोर्ट में अनुवादकों की भर्ती प्रक्रिया से संबंधित है।
अदालत ने इस पर कहा कि नियमों में पहले से इसकी व्यवस्था हो कि पात्रता में बदलाव हो सकता है तो ही ऐसा किया जा सकता है लेकिन समानता के अधिकार का उल्लंघन करते हुए मनमाने तरीके से ऐसा नहीं हो सकता। पीठ ने कहा कि मौजूदा नियमों या विज्ञापन के तहत मानदंडों में बदलाव की अनुमति है तो इन्हें संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुरूप होना चाहिए।
चयन सूची में स्थान मिलने से नियुक्ति का कोई अपरिहार्य अधिकार नहीं मिल जाता। राज्य या उसकी संस्थाएं वास्तविक कारणों से रिक्त पद न भरने का विकल्प चुन सकती हैं। पीठ ने 1965 के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि यह अच्छा सिद्धांत है। राज्य या उसके तंत्रों को नियमों से छेड़छाड़ की अनुमति नहीं देनी चाहिए।
मामले में तीन असफल उम्मीदवारों ने हाई कोर्ट में रिट याचिका दायर कर इस परिणाम को चुनौती दी थी जिसे मार्च, 2010 में खारिज कर दिया गया। बाद में वे शीर्ष अदालत पहुंच गए। सरकारी नौकरियों में होने वाली धांधली कोई नई बात नहीं है पर कम ही मामलों में हताश अभ्यर्थी अदालत की शरण लेते हैं क्योंकि न्याय प्रक्रिया में जाते ही समय और धन का अतिरिक्त खर्च कांधों पर आ जाता है।
जैसा कि इस मामले में चौदह सालों के इंतजार के बाद अन्तत: उनके पक्ष में फैसला आया। देश में बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। युवाओं की सारी जवानी रिक्तियों की आपूर्ति के इंतजार में निकल जाती है। कई दफा परिणाम देरी से आते हैं या रद्द तक हो जाते हैं।
जो परीक्षाएं और साक्षात्कार होते हैं, उनमें होने वाली धांधली को लेकर परीक्षार्थी सशंकित रहते हैं। मगर राज्य सरकारों की कोताही को लेकर सब मौन हैं। नौजवानों के भविष्य से खिलवाड़ का खमियाजा तो इन्हें भुगतना ही चाहिए।
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