जल संरक्षण : अब तालाबों की रक्षा और जरूरी

Last Updated 13 Oct 2024 12:57:36 PM IST

जैसे -जैसे अधिक ग्रामीण घरों में नल से पानी पंहुच रहा है, वैसे-वैसे परंपरागत जल स्रेतों तालाबों, कुओं आदि पर गांववासियों की निर्भरता पहले से कम हो रही है।


इसका एक अनचाहा परिणाम यह हो सकता है कि तालाबों और अन्य परंपरागत जल स्रेतों की रक्षा और रखरखाव पर पहले से कम ध्यान दिया जाए। ऐसा हुआ तो बहुत हानिकारक होगा। जल-संरक्षण और पानी के रीचार्ज के लिए तालाबों का महत्त्व सदा बना रहेगा। पशुओं के पीने के लिए और अनेक अन्य उपयोगों के लिए भी तालाबों का महत्त्व बना रहेगा। अत: चाहे सभी ग्रामीण घरों में नल पहुंच जाए पर तालाबों और अन्य परंपरागत जल स्रेतों की रक्षा का महत्त्व बना रहेगा।

दो कारणों से यह महत्त्व और बढ़ रहा है। पहली बात तो यह है कि जलवायु बदलाव के दौर में गर्मी अधिक विकट होने और गर्मी का मौसम पहले से अधिक लंबा खिंचने के कारण तालाबों और जल तथा नमी संरक्षण का महत्त्व बढ़ गया है। दूसरा मुद्दा यह है कि लालची और शक्तिशाली तत्वों द्वारा परंपरागत जल स्रेतों और उनके आसपास अतिक्रमण करने की प्रवृत्ति के कारण इन जल स्रेतों के लिए खतरा बढ़ता जा रहा है, वह भी ऐसे समय में जब गर्मी के बढ़ते प्रकोप के बीच पहले ही उनकी स्थिति विकट हो रही है। हमारे देश के विभिन्न क्षेत्र अपने जल-संरक्षण के समृद्ध परंपरागत ज्ञान और उस पर आधारित जल स्रेतों के लिए जाने जाते हैं। राजस्थान में विशेषकर यहां के रेगिस्तानी क्षेत्र में वर्षा बहुत कम होती है, अत: यहां आरंभ से ही वष्रा के पानी को संग्रहण करने के अनेक तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं। राजस्थान से थोड़ा आगे जाएं तो गुजरात के कच्छ क्षेत्र में भी ऐसे परंपरागत सूझ-बूझ के अनेक तरीकों को देखा जा सकता है। व्यक्तिगत भूमि या गांव-समुदाय की भूमि, दोनों तरह की भूमि में विशेष रूप से जल ग्रहण क्षेत्र को तैयार कर उसके पानी को कुंडी नामक कुएं में एकत्र करने के कार्य को राजस्थान के अनेक क्षेत्रों में देखा जा सकता है। केवल गांव के अपने उपयोग के लिए ही नहीं, कहीं-कहीं तो यात्रियों के लिए भी ऐसे विशेष संग्रहण की व्यवस्था है। ध्यान इस बात पर दिया जाता है कि अधिकतम पानी कुएं में पहुंच सके। जल ग्रहण क्षेत्र की लिपाई-पुताई और उसका ढलान बनाने में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है।

तालाब के सीपेज का पानी बेकार न जाए, अत: इस सीपेज के पानी को एकत्र करने के लिए कुंई नामक विधि का प्रचलन है। राजस्थान के किले तो वैसे भी विख्यात हैं पर इनका जल प्रबंधन विशेष रूप से देखने योग्य है। इससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। चितौड़ के किले में हाथी कुंड की सीपेज से गोमुख का झरना बनता है, और इस झरने से फिर चितौड़ के किले का मुख्य जलाश्य बनता है। किले की तो क्या बात करें सामान्य आवासों में आंगन या बरामदे में कुंड बना कर और छतों पर उचित व्यवस्था कर वष्रा के जल संग्रहण की व्यवस्था राजस्थान में कई स्थानों पर देखी जा सकती है। तरह-तरह के छोटे-बड़े तालाबों और बावड़ियों की दृष्टि से यह राज्य समृद्ध है। विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि बहुत कम वष्रा राजस्थान के कुछ भागों जैसे जैसलमेर में होती है पर वहां भी पिछले कुछ वर्षो की कुछ समस्याओं के आने से पहले तक, परंपरागत उपायों से पर्याप्त पेय जल की व्यवस्था कर लोग इस महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में काफी हद तक आत्मनिर्भर बने हुए थे। उत्तर पूर्व के राज्यों में परंपरागत सिंचाई के अनेक श्रेष्ठ उदाहरण मिल सकते हैं। बांसों की पाइप लाइन के माध्यम से काफी दूर के पौधों तक ठीक उतना पानी पहुंचाना जितना पौधों के जिए जरूरी है, मेघालय की विशेष उपलब्धि है।

वर्ष 1956 में आंध्र प्रदेश में सिंचाई के लिए उपयोगी 58518 तालाब थे जिनसे लगभग दस लाख हैक्टेयर की सिंचाई हो रही थी अथवा यहां के कुल सिंचित क्षेत्र के 40 प्रतिशत की सिंचाई तालाबों से हो रही थी। इससे पता चलता है कि यहां तालाबों की सिंचाई कितनी महत्त्वपूर्ण रही है। हालांकि अब इसमें कुछ कमी अवश्य आई है पर इसका महत्त्व बना हुआ है। इनमें से अनेक तालाब ऐसे बनाए गए हैं कि वे एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और उनमें पानी का पूरा-पूरा उपयोग होता है, वह व्यर्थ नहीं बहता है। तमिलनाडु के कुल सिंचित क्षेत्र में से लगभग एक तिहाई की सिंचाई यहां एरी नाम के प्राचीन तालाबों से होती रही है।

जल संग्रहण और संरक्षण के कार्य को किस तरह अधिक हरियाली लाने, वनीकरण, कृषि और पशुपालन में सुधार तथा इस तरह आजीविका के साधनों में बहुपक्षीय बेहतरी से जोड़ा जा सकता है, इसके उदाहरण सुखोमाजरी गांव, रालेगांव सिद्दी गांव आदि में देखे गए हैं। पानी का बंटवारा समता के आधार पर हो, इस दृष्टि से महाराष्ट्र के पुणो जिले में पानी पंचायतों का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है, जिसमें ग्राम गौरव प्रतिष्ठान की उल्लेखनीय भूमिका रही है।

इस प्रयोग की कई बातें उल्लेखनीय हैं जैसे भूमिहीन लोगों को भी पानी का हिस्सा देना तथा जिन फसलों पर बहुत पानी खर्च होता है, उन पर सफलतापूर्वक रोक लगाना। बिहार में अहार पाईन की प्राचीन प्रणाली के आधार पर सिंचाई की व्यवस्था को नया जीवन देने के प्रयास पलामू जिले में पिछले कुछ वर्षो में किए गए हैं। परंपरागत तकनीक सस्ती हैं, स्थानीय लोगों के अपने हाथ में हैं। स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर पानी के संबंध में उनकी जो सोच है, जो कई पीढ़ियों के ज्ञान और सोच का निचोड़ है, उससे हमें लाभ जरूर उठाना चाहिए और उसकी उपेक्षा कभी नहीं करनी चाहिए। वास्तव में परंपरागत जल-संग्रहण की पण्रालियां सामूहिक प्रयास हैं। बुंदेलखंड और नर्मदा क्षेत्र की हवेली पद्धति को लें या बिहार की अहार पाईन पद्धति को, ये किसानों के सामूहिक प्रयास या तालमेल के बिना संभव नहीं हैं।

तालाब बनाने में, उसके रखरखाव में, उसकी सफाई में पूरे गांव का योगदान होता रहा है। यहां तक कि घुमंतू पद्धति जीने वाले लोगों ने भी अपने सामूहिक प्रयासों से जल-संरक्षण और संग्रहण को उल्लेखनीय देन दी। कच्छ की वीरदी पद्धति मालधारी समुदाय की देन है जबकि उदयपुर में आज तक जल का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रेत बनी हुई पिचौला झील बंजारों ने बनाई थी। बहुत से तालाब, जो राजाओं ने बनवाए थे, उनके अपने या अपने घराने के उपयोग के लिए थे। जनसाधारण के उपयोग के अधिकांश जल स्रेत गांव-समुदाय ने स्वयं बनाए।

अत: परंपरागत जल स्रेत पर काम करना है तो समझना जरूरी है कि बनाने और रख-रखाव की समुदाय की क्या व्यवस्था थी, उसकी क्या कमजोरियां और खूबियां थीं। हो सकता है कि वर्तमान के अपने उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए इनमें से कुछ बातें अनुचित लगें फिर भी उन्हें समझना तो होगा। यदि समता के आधार पर हम पुरानी व्यवस्था में बदलाव चाहते हैं तो ध्यान में रखना होगा कि हम यदि किसी पहले काम कर रही पद्धति को हटा रहे हैं, तो उसकी जगह ऐसी पद्धति को रखें जो कुछ नये उद्देश्यों को अपनाते हुए भी काम कर सके। वास्तव में परंपरागत पानी के स्रेत बचाने और हरियाली बचाने के कार्य के साथ गांव-समुदाय को नया जीवन देना और उसे रचनात्मक कार्य के लिए आंदोलित करना बहुत नजदीकी तौर पर जुड़ा हुआ है। जब तक गांव- समुदाय का पुनर्जागरण नहीं होगा तब तक ऐसे अन्य कार्य कठिन हैं। बुजुगरे के ज्ञान और युवावर्ग के आदशरे और उत्साह का समन्वय करते हुए गांव-समुदाय का पुनर्जागरण आवश्यक है।

भारत डोगरा


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