प्राकृतिक खेती में सतर्क रहना होगा

Last Updated 18 Aug 2024 01:46:09 PM IST

भारत सरकार ने प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करने का निर्णय लिया है। कहा है कि इसे एक करोड़ किसानों तक पहुंचाना है। इस निर्णय का स्वागत करते हुए साथ में यह कहना होगा कि इस उद्देश्य को प्राप्त कर इसे फिर और अधिक किसानों तक भी बढ़ाना चाहिए।


हाल में इस लेखक को प्राकृतिक खेती को भली-भांति अपनाने वाले अनेक मेहनतकश छोटे किसानों से बातचीत के अवसर मिले। उनकी सहायता करने वाले संस्थानों ने प्राय: साथ में लघु सिंचाई, तालाबों की सफाई और सही रख-रखाव, उचित प्रशिक्षण मिट्टी और जल संरक्षण पर भी समुचित ध्यान दिया था। परिणाम यह रहा कि किसानों ने अपने खर्च को बहुत कम करते हुए भी उत्पादन पहले जितना ही बनाए रखा या उसमें कुछ वृद्धि भी की। हां, इतना जरूर है कि कुछ किसानों को पहले एक-दो वर्षो में कुछ कठिनाई होती है। अत: आरंभिक समय में किसानों की सहायता करने का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

विशेषकर छोटे और मध्यम किसानों के लिए कृषि पर खर्च को कम कर पाना बडी उपलब्धि है। खर्च कम करने से ही कर्ज से भी मुक्ति मिलेगी। रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं पर खर्च कम होने का केवल आर्थिक लाभ ही नहीं है, इस तरह फासिल फ्यूल का उपयोग कम करने से जलवायु बदलाव का संकट भी कम होगा, प्रदूषण भी कम होगा और स्वास्थ्य लाभ होगा। प्राकृतिक खेती को आगे अवश्य बढ़ाना होगा पर इसका वास्तविक लाभ तभी मिलेगा जब जीएम फसलों पर रोक लगेगी। प्राकृतिक खेती और जीएम फसलों में परस्पर विरोध है। जीएम फसलों के विरोध का एक मुख्य आधार यह रहा है कि ये फसलें स्वास्थ्य और पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित नहीं हैं तथा यह  असर जेनेटिक प्रदूषण के माध्यम से अन्य सामान्य फसलों और पौधों में फैल सकता है। इस विचार को इंडिपेंडेंट साइंस पैनल (स्वतंत्र विज्ञान मंच) ने बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है।

इस पैनल में एकत्र हुए विश्व के अनेक देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने जीएम फसलों पर एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज तैयार किया जिसके निष्कर्ष में उन्होंने कहा है-जीएम फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था, वे प्राप्त नहीं हुए हैं और ये फसलें खेतों में समस्याएं बढ़ा रही हैं। अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रांसजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता। अत: जीएम फसलों और गैर-जीएम फसलों का सहअस्तित्व नहीं हो सकता। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि जीएम फसलों की सुरक्षा या सेफ्टी प्रमाणित नहीं हो सकी है। इसके विपरीत पर्याप्त प्रमाण प्राप्त हो चुके हैं,  जिनसे इन फसलों की सेफ्टी या सुरक्षा संबंधी गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं। यदि इनकी उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य और पर्यावरण की क्षति होगी जिसकी पूर्ति नहीं हो सकती, जिसे फिर ठीक नहीं दिया जा सकता। जीएम फसलों को अब दृढ़ता से रिजेक्ट कर देना चाहिए, अस्वीकृत कर देना चाहिए। इन फसलों से जुड़े खतरे का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष कई वैज्ञानिकों ने यह बताया है कि जो खतरे पर्यावरण में फैलेंगे उन पर हमारा नियंत्रण नहीं रह जाएगा और बहुत दुष्परिणाम सामने आने पर भी हम इनकी क्षतिपूर्ति नहीं कर पाएंगे। जेनेटिक प्रदूषण का मूल चरित्र ही ऐसा है।

वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण की गंभीरता पता चलने पर इनके कारणों का पता लगाकर उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं, पर जेनेटिक प्रदूषण जो पर्यावरण में चला गया वह हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाता है। जेनेटिक इंजीनियरिंग का प्रचार कई बार इस तरह किया जाता है कि किसी विशिष्ट गुण वाले जीन का ठीक-ठीक पता लगा लिया है और इसे दूसरे जीव में पंहुचा कर उसमें वही गुण उत्पन्न किया जा सकता है। किन्तु हकीकत इससे अलग और कहीं अधिक पेचीदी है। कोई भी जीन केवल अपने स्तर पर या अलग से कार्य नहीं करता अपितु बहुत से जीनों के एक जटिल समूह के एक हिस्से के रूप में कार्य करता है। इन असंख्य अन्य जीनों से मिलकर और उनसे निर्भरता में ही जीन के कार्य को देखना-समझना चाहिए, अलगाव में नहीं। एक ही जीन का अलग-अलग जीव में काफी भिन्न असर होगा, क्योंकि उनमें जो अन्य जीन हैं, वे भिन्न हैं। विशेषकर जब एक जीव के जीन को काफी अलग तरह के जीव में पंहुचाया जाए तो, जैसे मनुष्य के जीन को सूअर में, तो इसके काफी नये और अप्रत्याशित परिणाम मिल सकते हैं।  

इतना ही नहीं, जीनों के समूह का किसी जीव की अन्य शारीरिक रचना और बाहरी पर्यावरण से भी संबंध है। जिन जीवों में वैज्ञानिक विशेष जीन पंहुचाना चाह रहे हैं, उनसे अलग जीवों में भी इन जीनों के पंहुचने की संभावना रहती है जिसके अनेक अप्रत्याशित परिणाम और खतरे हो सकते हैं। बाहरी पर्यावरण जीन के असर को बदल सकता है और जीन बाहरी पर्यावरण को इस तरह प्रभावित कर सकता है जिसकी संभावना जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग करने वालों को नहीं थी। एक जीव के जीन दूसरे जीव में पंहुचाने के लिए वैज्ञानिक जिन तरीकों का उपयोग करते हैं उनसे अप्रत्याशित परिणामों और खतरों की संभावना और बढ़ जाती है। जेनेटिक इंजीनियरिंग के अधिकांश महत्त्वपूर्ण उत्पादों के पेटेंट बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास हैं और वे अपने मुनाफे को अधिकतम करने के लिए इस तकनीक का जैसा उपयोग करती हैं, उससे इस तकनीक के खतरे और बढ़ जाते हैं। कृषि एवं खाद्य क्षेत्र में जेनेटिक इंजीनियरिंग की टैक्नोल्ॉजी मात्र लगभग छ:-सात बहुराष्ट्रीय कंपनियों (उनकी सहयोगी या उपकंपनियों) के हाथ में केंद्रित हैं। इन कंपनियों का मूल आधार पश्चिमी देशों में है। इनका उद्देश्य जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से विश्व कृषि एवं खाद्य व्यवस्था पर ऐसा नियंत्रण स्थापित करना है जैसा विश्व इतिहास में आज तक संभव नहीं हुआ है।

इस विषय पर सबसे गहन जानकारी रखने वाले भारत के वैज्ञानिक थे प्रो. पुष्प भार्गव। एक लेख (हिंदुस्तान टाइम्स, 7 अगस्त, 2014) में प्रो. भार्गव ने लिखा कि लगभग 500 अनुसंधान प्रकाशनों ने जीएम फसलों के मनुष्यों, अन्य जीव-जंतुओं और पौधों के स्वास्थ्य पर हानिकारक असर को स्थापित किया है और ये सभी प्रकाशन ऐसे वैज्ञानिकों के हैं जिनकी ईमानदारी के बारे में कोई सवाल नहीं उठा है। इस विख्यात वैज्ञानिक ने आगे लिखा कि दूसरी ओर जीएम फसलों का समर्थन करने वाले लगभग सभी पेपर या प्रकाशन उन वैज्ञानिकों के हैं जिन्होंने कन्फलिक्ट ऑफ इंटरेस्ट स्वीकार किया है, या जिनकी विसनीयता और ईमानदारी के बारे में सवाल उठ सकते हैं। प्राय: जीएम फसलों के समर्थक कहते हैं कि वैज्ञानिकों का अधिक समर्थन जीएम फसलों को मिला है पर प्रो. भार्गव ने इस विषय पर समस्त अनुसंधान का आकलन कर यह स्पष्ट बता दिया कि अधिकतम निष्पक्ष वैज्ञानिकों ने जीएम फसलों का विरोध ही किया है। उन्होंने यह भी बताया कि जिन वैज्ञानिकों ने समर्थन दिया है उनमें से अनेक किसी न किसी स्तर पर जीएम बीज बेचने वाली कंपनियों या इस तरह के निहित स्वार्थों से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं या प्रभावित रहे हैं।

अत: प्राकृतिक खेती सही अथरे में तभी सफल हो सकेगी यदि हम जीएम फसलों से अपनी कृषि एवं खाद्य व्यवस्था की रक्षा करें।

भारत डोगरा


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