भारत ने कतर में जीती कूटनीति
कतर से बड़ी राहत मिली है। वहां कैद देश के आठ पूर्व नौसैनिकों, जिनमें तीन कैप्टन, चार कमांडर और एक नाविक हैं, की फांसी की सजा आजीवन कारावास में बदल दी गई है।
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अल दहारा कंपनी में कार्यरत इन नौसैनिकों को जासूसी के कथित आरोप में अक्टूबर में सजा सुनाई गई थी। परंतु कतर ने उनके विरुद्ध आरोपों का विवरण जाहिर नहीं किया था। सरकार ने उनकी रिहाई के लिए तमाम कानूनी विकल्पों को आजमाने तथा सभी न्यायिक फोरम पर इसकी लड़ाई लड़ने का आासन दिया था।
उस पर भरोसा न करने की कोई वजह भी नहीं थी। उसने अपना काम बखूबी किया। सवाल है कि क्या यह कानूनी विकल्पों को आजमाने का नतीजा है या नरेन्द्र मोदी की कूटनीतिक पहल का भी कोई रोल है?
इसमें दोनों की भूमिका है। इसलिए कि यह मामला कतर की राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा गंभीर मामला था। इसमें अमेरिका भी मददगार नहीं हो सकता था। दूसरे, अरब में भारत के दोस्त सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात से कतर के संबंध छत्तीस के हैं। ऐसे में भारत के पास कानूनी विकल्प आजमाने के साथ मोदी की पहल सुनिश्चित करने के अलावा कोई चारा नहीं था।
इस तथ्य के बावजूद कि भारत की वि में अपनी एक अनुपक्षणीय हैसियत है और उसने कतर की तब मदद की थी, जब वह अपने ही पड़ोसी देशों की घेराबंदी से खाद्यान्न का मोहताज हो गया था। फिर भी वह नुपूर शर्मा मामले में विरोध करने वाला मध्य पूर्व का वह पहला देश था। इसलिए दो दिसम्बर को दुबई में कॉप28 के सम्मेलन में मोदी को अमीर शेख तमीम बिन हमद अल थानी से मुलाकात के दौरान वहां के ‘भारतीय समुदाय की सुरक्षा और कल्याण पर अच्छी चर्चा’ करनी पड़ी थी। इसे नौसैनिकों के जिक्र का परोक्ष संकेत समझा गया।
निस्संदेह इनका सजा में बदलाव पर असर पड़ा होगा। हालांकि यह सब हुआ है, अदालत के जरिए ही, जहां पीड़ितों के परिजनों के साथ भारत के राजदूत भी मौजूद थे। इससे उत्साहित देश तो यही चाहेगा कि सरकार अपने इन पूर्व नौ सैनिकों को जैसे भी हो अपने घर ले आए।
ऐसा हो भी सकता है। एक तो आम माफी के जरिए जो कतर के अमीर एक खास तारीख पर देते हैं। दूसरे, कतर के साथ कैदियों की स्थानांतरण संधि का लाभ उठाते हुए उन्हें अपने देश की जेल में ही बाकी सजा काटने की व्यवस्था करके। दोनों विकल्पों में पहले वाला विकल्प ही काम्य होगा। इसके प्रयास किए जाएं।
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