शीर्ष अदालत की चिंता
सर्वोच्च अदालत ने विभिन्न राज्यों के राज्यपालों द्वारा विधानसभा से पारित विधेयकों पर कार्रवाई से परहेज और उन्हें मंजूरी देने में देरी पर सोमवार को चिंता जतलाई। प्रधान न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने राज्यपालों को थोड़ा आत्मावलोकन करने का सुझाव देते हुए कहा कि ऐसे मामले शीर्ष अदालत आने से पहले ही कार्रवाई की जानी चाहिए।
शीर्ष अदालत की चिंता |
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा भी पीठ में शामिल थे। दरअसल, राज्य सरकारों और राज्यपालों के बीच टकराव नई बात नहीं है। यदि केंद्र में आरूढ़ सरकार और किसी राज्य आरूढ़ सरकार एक ही पार्टी की न हों यानी डबल इंजन की सरकार न हो तो ज्यादातर देखा गया है कि राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच टकराव हो जाता है।
चूंकि राज्यपाल केंद्र सरकार की संस्तुति पर राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं, इसलिए उनका झुकाव केंद्र में आरूढ़ पार्टी की तरफ हो सकता है, और यह भी हो सकता है कि वह पूर्व में सत्तारूढ़ पार्टी से जुड़े नेता रहे हों। कई दफा सेवानिवृत्त नौकरशाहों या सेवानिवृत्त सेनाधिकारियों को भी राज्यपाल के रूप में मनोनीति करवा लिया जाता है।
इस प्रकार नियुक्त हुए राज्यपाल केंद्र में आरूढ़ दल की इच्छा को तरजीह देते दिखते हैं। ऐसे में राज्य में सत्तासीन किसी विरोधी दल की सरकार को बाकायदा विधानसभा से पारित विधेयकों को राज्यपाल से मंजूर कराने में खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। दिल्ली और पंजाब में काबिज आम आदमी पार्टी की सरकार को तो उपराज्यपाल और राज्यपाल से विधानसभा में विधिवत पारित विधेयकों को मंजूरी दिलाने में खासी मशक्कत करनी पड़ी है। मौजूदा विवाद भी पंजाब आम आदमी पार्टी की सरकार जुड़ा है।
पंजाब सरकार ने राज्यपाल बीएल पुरोहित पर विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में अनावश्यक विलंब करने का आरोप लगाते हुए सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाया था। कोर्ट ने इस मामले में सख्त रुख अपनाते हुए साफ कहा है कि विधेयकों को रोकने की समय सीमा होती है, लेकिन दुखद है राज्यों की सरकारों को विधानसभा का सत्र आहूत करने तक के लिए शीर्ष अदालत में आना पड़ रहा है।
राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच इतनी तल्खी नहीं होनी चाहिए कि ऐसी नौबत आए। शीर्ष अदालत ने अपनी सख्त टिप्पणी में कहा है कि राज्यपाल अपनी सीमा समझें, वे चुने हुए प्रतिनिधि नहीं हैं।
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