जिद का शिकार आंदोलन
छह फरवरी के चक्का जाम का शोर ज्यादा हुआ असर कम। इस चक्का जाम से किसानों ने स्थानीय लोगों को भले ही थोड़ा परेशानी में डाला हो लेकिन सरकार के ऊपर दबाव डाला हो ऐसा प्रतीत नहीं होता।
जिद का शिकार आंदोलन |
वास्तविकता यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक विरोधियों का इस आंदोलन से जुड़ जाने के कारण भी यह आंदोलन कमजोर हुआ है। विपक्षी राजनीतिक दल अब खुलकर किसानों के समर्थन में आ गए हैं।
किसानों की एकमात्र जिद यह है कि संसद द्वारा पारित इन तीनों नये कृषि कानूनों को सरकार वापस ले और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एसमएसपी) को कानूनी जामा पहनाया जाए। किसान आंदोलन का सर्वाधिक दुखद पहलू यह है कि विपक्षी दलों ने किसानों की इन मांगों के साथ अपने को जोड़ लिया है। इसलिए यह आंदोलन धीरे-धीरे सियासी होता जा रहा है। नये कृषि कानूनों की वापसी की मांग के संदर्भ में कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने साफ तौर पर कहा है कि किसान नेता या विपक्षी दलों के नेता यह बताने के लिए तैयार नहीं हैं कि तीनों कानूनों का कौन सा प्रावधान आम किसान के विरोध में है।
किसान आंदोलन से जुड़ा हुआ दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि इस आंदोलन में किसानों की भागीदारी कुल किसानों की छह फीसद से ज्यादा नहीं है। किसान आंदोलन का प्रभाव मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कुछ हिस्सों तक ही सीमित है। देश के अन्य राज्यों के किसानों में इन कानूनों को लेकर किसी तरह का विरोध नहीं देखा जा रहा है। आम जनता की सहानुभूति भी किसान आंदोलन के प्रति कम होती जा रही है। अगर किसी को इस बात का भ्रम हो कि आंदोलन के लंबा खिंचने से भाजपा को राजनीतिक नुकसान होगा तो यह सच नहीं है। जैसै-जैसे यह आंदोलन लंबा खींचेगा जन सहानुभूति कम होती जाएगी।
आंदोलन के प्रति जन सहानुभूति कम होने का सीधा अर्थ होगा सरकार का मजबूत होना। यह अपेक्षा भी नहीं की जानी चाहिए कि सरकार विपक्ष की किसी बात पर ध्यान देगी। क्योंकि किसान आंदोलन को लेकर मोदी समर्थक और मोदी विरोधी के बीच स्पष्ट तौर पर विभाजन हो चुका है। इसलिए किसानों को चाहिए कि तीनों कानूनों को वापस लेने की मांग का पूरी तरह परित्याग करे। सरकार के साथ बातचीत करने के बाद ही कोई संतोषजनक समाधान निकल सकता है। अगर ऐसा नहीं होता है तो यह आंदोलन अपनी जिद का शिकार हो जाएगा।
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