सुलह का सूरज लाएगा नई सुबह

Last Updated 16 Jan 2021 12:52:05 AM IST

किसान संगठनों का आंदोलन अब 51 दिनों का हो गया है। हर नया दिन देश की राजधानी दिल्ली से सटी सीमाओं पर किसानों के नये जत्थों की आमद का गवाह बन रहा है।


सुलह का सूरज लाएगा नई सुबह

गतिरोध दूर करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी भी बना दी, लेकिन किसान संगठन इसका खुलकर विरोध कर रहे हैं। लोहड़ी पर कृषि कानूनों की प्रतियां जलाकर किसानों ने सीधे तौर पर आंदोलन को जारी रखने का ऐलान कर दिया है।  

आंदोलन जितना लंबा खिंचता जा रहा है, उससे जुड़े सवाल भी उतने ही बड़े होते जा रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि कोई पक्ष इसका हल निकालने के लिए संकल्पित नहीं है, वरना ना तो दुनिया में कहीं भी इतनी बड़ी तादाद में आंदोलनकारियों के इतने लंबे समय तक अपने घर-परिवार को दांव पर लगाकर धरने पर बैठे रहने का इतिहास मिलता है, ना ही कोई सरकार इतनी तंगदिल हो सकती है कि राष्ट्र निर्माण में योगदान देने वाले देशवासी हजारों-लाखों की संख्या में उसके ही खिलाफ इस तरह बर्फीली ठंड में खुद को होम करने पर मजबूर हो जाएं। लेकिन शायद खूंटा यहीं गड़ेगा की जिद ने पेंच को ऐसा फंसा  दिया है कि देश की सबसे बड़ी पंचायत के बाद देश की सबसे बड़ी अदालत का आदेश भी संदेह की नजर से देखा जा रहा है।

किसानों के साथ हमेशा से पूरे देश की असंदिग्ध सहानुभूति रही है, होनी भी चाहिए क्योंकि हमारा पेट भरने के लिए किसान दशकों से अपना पेट काटता आया है। बिन मांगे मिले कानून को लेकर सरकार से उसका भरोसा डिगा है, जो वाजिब भी हो सकता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा ना करने की कोई वजह नहीं दिखती। नये कानूनों पर अस्थायी रोक लगाकर अदालत ने एक तरह से किसानों के मन की बात ही सुनी है। इसलिए उसकी बनाई कमेटी के काम शुरू करने से पहले ही उसका बॉयकॉट करने का फैसला पूर्वाग्रह के दायरे में आ गया है, वो भी तब जब कमेटी के एक सदस्य सार्वजनिक तौर पर ऐलान कर चुके हैं कि इस दायित्व को निभाने में उनकी निजी राय कहीं आड़े नहीं आएगी। इस बीच, कमेटी के एक दूसरे सदस्य का इस्तीफा भी आंदोलन के भविष्य को लेकर शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता।

कुछ भी कहना अभी मुश्किल  
अदालत में आगे क्या होगा, इस पर अभी दावे के साथ कुछ भी कहना मुश्किल है। लेकिन कानून पर लगी रोक ने सरकार और किसान संगठनों, दोनों को अपनी-अपनी रणनीति की नये सिरे से व्याख्या के लिए वक्त जरूर दे दिया है। जिम्मेदारी के नजरिए से देखें, तो ऐसे हालात में हमेशा सरकार पर ही दबाव ज्यादा रहता है। आखिर दुनिया के सबसे बड़े विरोध प्रदर्शन की ओर बढ़ रहे इस आंदोलन से सरकार क्या सबक सीख सकती है? उससे भी पहले जानना जरूरी है कि क्या सरकार के पास अभी भी सुलह का कोई फॉर्मूला बचा है?
इसका जवाब आंदोलन की पृष्ठभूमि में ही मिल सकता है। किसान धरने पर बैठे थे एमएसपी की मांग को लेकर, लेकिन अब इसमें फसलों की अस्थिर कीमत, खेती का सिकुड़ता रकबा, घटता उत्पादन जैसे दूसरे कई बुनियादी प्रश्न भी घुसपैठ कर चुके हैं यानी फौरी तौर पर भले दिखता हो कि चार में से बची हुई दो मांगें भी पूरी होने पर किसान खुशी-खुशी घर लौट जाएंगे, लेकिन खेती-किसानी में व्यापक बदलाव नहीं हुए तो उन्हें बार-बार खेत-खलिहान छोड़कर सड़कों का रु ख करना पड़ सकता है। सरकार दावा कर रही है कि नये कानून लाने का मुख्य मकसद भी यही है कि किसानों को ऐसे दिन ना देखना पड़ें। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि अनाज के गोदामों की तरह किसानों की झोली भी भरी रहे। ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डवलपमेंट की रिपोर्ट के मुताबिक 2013 से 2016 के बीच के तीन साल में किसानों की आय केवल 2 फीसद बढ़ी। इसे देखते हुए सरकार ने ऐलानिया तौर पर कहा कि साल 2022 तक उसका लक्ष्य किसानों की आय को दोगुना करना है। चार साल पहले जो लक्ष्य विास की मजबूत बुनियाद पर खड़ी अडिग मंजिल दिख रहा था, वो अभी पहुंच से दूर भले ना हो लेकिन बेहद महत्त्वाकांक्षी जरूर लगने लगा है। एक सरकारी कमेटी की रिपोर्ट ने अनुमान लगाया कि 2015 के मुकाबले 2022 में आय दोगुनी करने के लिए किसानों की आय को 10.4 फीसद की सालाना दर से बढ़ना होगा।

विकास की रफ्तार हुई तेज
पिछले तीन साल में जिस तरह विकास की रफ्तार तेज हुई है, उससे उम्मीद बंधती है कि यह आगे भी जारी रहेगी, लेकिन क्या ये किसानों की आय दोगुनी करने के लिए पर्याप्त है? खाद और बीज पर सब्सिडी, क्रेडिट स्कीम, किसानों के हाथ में डायरेक्ट कैश ट्रांसफर करने वाली प्रधानमंत्री किसान योजना सही दिशा में उठाए गए कदम हैं, लेकिन इसके बावजूद सरकार खुद के बनाए मानक हासिल करने में संघर्ष करती दिखी है। अपने ही आंकड़ों से चिंतित सरकार को लगता है कि अब सुधारों के लिए इंतजार का वक्त निकल चुका है और जो कुछ करना है, जल्द करना होगा। जल्दीबाजी में नये कानून लाने के विपक्ष के आरोप के जवाब में सरकार यही तर्क पेश भी कर रही है। कई निष्पक्ष जानकार भी मान रहे हैं कि वक्त के साथ खेती के तौर-तरीकों में बदलाव जरूरी हो गया है और आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभा रहे पंजाब-हरियाणा के किसानों के साथ यही बड़ी समस्या है। जरूरत से ज्यादा उत्पादन, डिमांड से ज्यादा सप्लाई के कारण कम होती आय और गिरते जल स्तर से गेहूं और धान की फसल अपनी चमक खोती जा रही है, लेकिन पंजाब-हरियाणा के किसान अब भी इन दोनों फसलों की पुरानी धमक से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। यहीं सरकार की भूमिका अहम होगी जहां केवल कानून लाने से काम नहीं बनेगा। इसके लिए सरकार को किसानों को भरोसे में लेकर उत्पादन, वितरण और भंडारण के क्षेत्र में ऐसी लाभकारी नीतियां लानी होंगी, जिनसे वो दूसरी फसलों का भी रु ख कर सकें। सरकार बेशक दावा कर रही हो कि नये कानून इसी दिशा में निर्णायक कदम हैं, लेकिन किसान इस ‘प्रयोग’ के लिए तैयार नहीं हो पा रहे हैं।
 
पंजाब-हरियाणा के किसान और वहां की खेती लंबे समय तक बाकी देश के लिए रोल मॉडल रही है। वो साख आज भी कायम है, लेकिन बदलते वक्त के साथ खेती में बदलाव लाकर कई और राज्य अब इस पहचान के साझेदार बन गए हैं।

पिछले कुछ दिनों में खेती के केरल मॉडल की काफी चर्चा रही है। सरकार इसके साथ ही कर्नाटक में कामयाब हुई फसल विविधता के मॉडल या फिर आंध्र, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सफल हो चुकी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंंग को भी नाराज किसानों के सामने रख सकती है। सवाल आपसी विास का है, जिसमें किसानों की भी कुछ जिम्मेदारी बनती है। अगर वो मानते हैं कि नया कानून उनकी पीढ़ियों को मुश्किल में डाल देगा, तो यह भरोसा भी रख सकते हैं कि भारत जैसे लोकतंत्र में किसी कानून का ऐसा हश्र होने पर सरकार खुद मुश्किल में भी पड़ सकती है।

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि इस गतिरोध से जुड़ने वाला कोई भी पक्ष आलोचना से बच नहीं पाया है। सरकार और किसान संगठनों के बाद अब देश की सबसे बड़ी अदालत को लेकर भी तरह-तरह के तर्क दिए जा रहे हैं, जबकि सच यही है कि सुप्रीम कोर्ट ने गतिरोध दूर करने के लिए हालात के मुताबिक आदेश दिया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे कोई-न-कोई नई राह जरूर खुलेगी। विवाद से जुड़े पक्षों को समझना होगा कि जिस तरह लंबी-से-लंबी रात की भी एक सुबह तय होती है, उसी तरह यह गतिरोध भी अनंत नहीं है, इसका कोई-न-कोई अंत तय है। उसकी प्रतिक्रिया जरूर स्वत:-स्फूर्त हो सकती है। या तो वो किसानों और सरकार में से किसी एक के लिए राहत हो सकती है, या दोनों को परेशान कर सकती है, या फिर दोनों पक्षों के साथ समूचे देश को खुश भी कर सकती है।

उपेन्द्र राय
मुख्य कार्यकारी अधिकारी एवं एडिटर इन चीफ, सहारा न्यूज नेटवर्क


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