ऐसा दशहरा जहां न राम होते हैं न रावणदहन, देखने आते हैं दुनिया भर के टूरिस्ट
मैसूर का दशहरा अन्य दशहरों से अलग है क्योंकि यहां न राम होते हैं और न ही रावण का पुतला जलाया जाता है।
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बल्कि देवी चामुंडा के राक्षस महिसासुर का वध करने पर धूमधाम से दशहरा मनाया जाता है।
दशहरा का पर्व देशभर में धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन मैसूर के दशहरा की अलग ही पहचान है। यहां दशहरा का त्योहार पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है इसलिए मैसूर का दशहरा देश ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में प्रसिद्ध है।
कर्नाटक के शहर मैसूर में दशहरे का आयोजन दस दिन तक होता है और इस त्योहार में लाखों की तादाद में पर्यटक शामिल होते हैं। इस दशहरा को स्थानीय भाषा में दसरा या नबाबबा कहते हैं।
पारंपरिक उत्साह व धूमधाम के साथ दस दिनों तक मनाया जाने वाला मैसूर का 'दशहरा उत्सव' देवी दुर्गा (चामुंडेश्वरी) द्वारा महिषासुर के वध का प्रतीक है और बुराई पर सत्य की जीत का पर्व है। इसलिए मैसूर के लोग विजयादशमी या दशहरे को धूमधाम से मनाते हैं। उत्सव के दौरान सांस्कृतिक व खेलकूद जैसी गतिविधियों का आयोजन किया जाता है। माना जाता है कि मैसूर के दशहरा उत्सव की शुरुआत 400 साल पहले हुई थी। यह उत्सव मैसूर के पूर्व राजघराने वाडियार वंश को प्रदर्शित करता है।
दसवें और आखिरी दिन यानि दशहरा के दिन चामुण्डेश्वरी देवी की हाथी की सवारी के साथ उत्सव का समापन किया जाता है। इसे जम्बू सवारी के नाम से भी जाना जाता है। इस हाथी के साथ ग्यारह अन्य गजराज भी रहते हैं, जिनकी विशेष साज-सज्जा की जाती है। इस उत्सव को अम्बराज भी कहा जाता है। उत्सव का केंद्र मैसूर के राजमहल को सजाया जाता है, जिसे देखने बड़ी संख्या में लोग आते हैं।
इस उत्सव की शुरुआत देवी चामुंडेश्वरी मंदिर में पूजा अर्चना के साथ शुरू होती है। चामुंडेश्वरी देवी की पहली पूजा शाही परिवार करता है। इस पर्व में मैसूर का शाही वोडेयार परिवार समेत पूरा मैसूर शहर शामिल होता है। चामुंडेश्वरी देवी मैसूर नगर भ्रमण के लिए निकलती हैं। साल भर में यह एक ही मौका होता है, जब देवी की प्रतिमा यूँ नगर भ्रमण के लिए निकलती है।
राजाओं के विशेषाधिकार समाप्त होने के बाद इस उत्सव को राज्य सरकार द्वारा आयोजित कराया जाता है। परम्परा के तौर पर वाडियार वंश श्रीकांतदत्ता नरसिम्हराजा द्वारा पूजा के बाद 'दरबार' का आयोजन किया जाता है।
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