PSA: उमर अब्दुल्ला की हिरासत के खिलाफ याचिका से अलग हुए जज, अब शुक्रवार को होगी सुनवाई
जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की पब्लिक सेफ्टी एक्ट (पीएसए) के तहत हिरासत को चुनौती देने वाली याचिका की सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई बुधवार को टल गई।
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सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एम एम शांतानागौडर ने सारा अब्दुल्ला पायलट की उस याचिका पर सुनवाई से बुधवार को खुद को अलग कर लिया जिसमें सारा ने अपने भाई एवं नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर जन सुरक्षा कानून के तहत हिरासत में लिए जाने को चुनौती दी है।
सारा पायलट की याचिका सुनवाई के लिए न्यायमूर्ति एन वी रमण, न्यायमूर्ति शांतानागौडर और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की तीन न्यायाधीशों वाली पीठ के समक्ष आई थी।
न्यायमूर्ति शांतानागौडर ने सुनवाई के प्रारंभ में कहा, ‘‘मैं मामले में शामिल नहीं हो रहा हूं।’’ उन्होंने सुनवाई से खुद को अलग करने के लिए कोई विशिष्ट कारण नहीं बताया। पीठ ने कहा कि याचिका पर गुरूवार को सुनवाई होगी।
सारा ने जम्मू कश्मीर जन सुरक्षा कानून, 1978 के तहत अपने भाई को नजरबंद किए जाने को चुनौती देते हुए सोमवार को शीर्ष न्यायालय का रुख किया था। याचिका में नजरबंदी के आदेश को गैरकानूनी बताते हुए कहा गया है कि इसमें बताई गईं वजहों के लिए पर्याप्त सामग्री और ऐसे विवरण का अभाव है जो इस तरह के आदेश के लिए जरूरी है। याचिका में उमर अब्दुल्ला को जन सुरक्षा कानून के तहत नजरबंद करने संबंधी पांच फरवरी का आदेश निरस्त करने का अनुरोध किया गया है।
सारा पायलट ने कहा कि आपराधिक दंड संहिता के तहत अधिकारियों द्वारा नेताओं समेत अन्य व्यक्तियों को हिरासत में लेने की शक्तियों का इस्तेमाल करना ‘‘साफ तौर पर ऐसी कार्रवाई स्पष्ट रुप से यह सुनिश्चित करने के लिए है कि संविधान के अनुच्छेद 370 हटाए जाने का विरोध दब जाए।’’
याचिका में कहा गया है कि उमर अब्दुल्ला को चार-पांच अगस्त, 2019 की रात घर में ही नजरबंद कर दिया गया था। बाद में पता चला कि इस गिरफ्तारी को न्यायोचित ठहराने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 107 लागू की गई है।
इसके अनुसार, ‘‘इसलिए यह नितांत महत्वपूर्ण और जरूरी है कि यह न्यायालय व्यक्ति के जीने और दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा ही नहीं करे बल्कि संविधान के भाग के अनुरूप अनुच्छेद 21 के भाव की भी रक्षा करे क्योंकि जिसका उल्लंघन एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए अभिशाप है।’’
याचिका में कहा है कि ऐसा व्यक्ति जो पहले ही छह महीने से नजरबंद हो, उसे नजरबंद करने के लिए कोई नयी सामग्री नहीं हो सकती। इसमें कहा गया है, ‘‘यह विरला मामला है कि वे लोग जिन्होंने सांसद, मुख्यमंत्री और केन्द्र में मंत्री के रूप में देश की सेवा की और राष्ट्र की आकांक्षाओं के साथ खड़े रहे, उन्हें अब राज्य के लिए खतरा माना जा रहा है।’’
उमर अब्दुल्ला को इस कानून के तहत नजरबंद किए जाने के कारणों में दावा किया गया है कि राज्य के पुनर्गठन की पूर्व संध्या पर उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 370 के अधिकांश प्रावधानों और अनुच्छेद 35-ए को खत्म करने के फैसले के खिलाफ आम जनता को भड़काने का प्रयास किया।
इस आदेश में एक अन्य वजह में इस फैसले के खिलाफ जनता को उकसाने के लिए सोशल नेटवर्क पर उनकी टिप्पणियों को भी शामिल किया गया है।
उमर अब्दुल्ला 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री थे। उन्हें इस नजरबंदी के संबंध में तीन पन्नों का आदेश दिया गया है जिसमें उनके दिए गए कथित बयान हैं जिन्हें विघटनकारी स्वरूप का माना गया है।
इस आदेश में यह भी दावा किया गया है कि अनुच्छेद 370 और 35-ए के फैसले के खिलाफ सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर उनकी टिप्पणियों में सार्वजनिक व्यवस्था में गड़बड़ी पैदा करने की क्षमता है।
राज्य में पांच अगस्त, 2019 से ही संचार संपर्क पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। बाद में इसमें ढील दी गयी। कुछ स्थानों पर अब इंटरनेट सेवा काम कर रही है। मोबाइल इंटरनेट सुविधा भी अब शुरू हो गई है, लेकिन इसकी गति 2जी की है और शर्त यह है कि सोशल मीडिया साइट्स के लिए इसका इस्तेमाल नहीं होगा।
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