आत्म शुद्धिकरण व आध्यात्मिक शक्तियों का पर्व नवरात्र

Last Updated 03 Oct 2024 10:32:53 AM IST

वैदिक मान्यताओं के अनुसार प्रकृति द्वारा इस सृष्टि में रचित हर वस्तु का समय-समय पर नवीनीकरण किया जाता है। जैसे हर रात्रि के पश्चात् दिन आता है और दिन के बाद रात्रि।


आत्म शुद्धिकरण व आध्यात्मिक शक्तियों का पर्व नवरात्र

पतझड़ के पश्चात् बसन्त ऋतु आती है और सभी पेड़-पौधो को पुन: हरा-भरा कर देती है।  ठीक इसी प्रकार जन्म के पश्चात् मृत्यु होती है और आत्मा नर शरीर से अलग होकर किसी नये स्वरूप में प्रवेश कर जाती है।  इस प्रकार प्रकृति द्वारा स्थूल से लेकर सूक्ष्म तक रचित सभी रचनाएं अपना पुराना आवरण त्यागकर नवीन आवरण में प्रवेश करती रहती हैं।  संसार में प्रचलित सभी धार्मिक ग्रन्थों, मान्यताओं एवं विचारधाराओं का एक ही सार है कि यह ब्रह्माण्ड एक ही शक्ति से उत्पन्न हुआ है और संचालित किया जा रहा है जिसे हिन्दू धार्मिक मान्यताओं में आदिशक्ति कहा गया है। इसी आदिशक्ति को अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग रूप एवं नामों से जाना और पूजा जाता है।  कोई इसे शक्ति कहता है और कोई इसे देवी रूप में मां दुर्गा, सरस्वती, काली, लक्ष्मी, पार्वती एवं गौरी आदि नामों से पूजता है परन्तु सभी आस्था, विश्वास एवं मान्यताओं का केन्द्रबिन्दु ‘मां’ है।

मां दुर्गा की ऊर्जा शक्तियों के नौ स्वरूप ही नव दुर्गा के रूप में अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं।  ब्रह्माण्ड की तरह मनुष्य के शरीर का संचालन एवं संतुलन भी माता दुर्गा की इन्हीं नौ शक्तियों से होता है। नौ पावन रात्रियों में मनुष्य शरीर में माता के अलग-अलग रूपों के उपस्थित शक्ति अंश अर्थात् उर्जाचक्रों की जागृति करना ही नवरात्रि पर्व का पवित्र उद्देश्य है, इस प्रक्रिया को ही अन्तर्मुखी साधना कहा जाता है, जिससे शरीर की ऊर्जा का प्रवाह ऊपर की ओर होने लगता है और मनुष्य को परमपिता परमेश्वर से मिलने का मार्ग प्रशस्त होता है। नवरात्र के नौ दिन हमें हमारे अन्तर्मन के तीन गुण क्रमश: तमस, रजस एवं सत्व गुणों का शुद्धिकरण कर उनका नवीनीकरण करने का अवसर प्रदान करते हैं जिसके लिए हम ध्यान, साधना, प्रार्थना, व्रत एवं सत्संग के माध्यम से ईश्वर का साक्षात्कार कर इन तीनों गुणों का शुद्धिकरण करके उनका नवीनीकरण कर सकते हैं।

नवरात्र में दिन के स्थान पर रात्रि में साधना करने के पीछे वैज्ञानिक कारण यह है कि अंधकार तत्व से ही ब्रह्माण्ड तथा उसके समस्त जीवों का सृजन और पोषण तथा संहार होता है परन्तु यदि अंधकार अथवा प्रकाश में से एक विकल्प का चयन करने के लिए कहा जाय तो वह प्रथम विकल्प के रूप में प्रकाश का ही चयन करेगा जबकि सत्यता यह है कि प्रकाश सर्वव्यापी नहीं है किन्तु अंधकार सर्वव्यापी तथा चिरंतन है तथा इसका कोई आदि-अन्त नहीं है। जो सर्वव्यापी है, चिरंतन है और आदि अन्त से परे है वही परम तत्व श्रेष्ठ तथा पूजनीय है। रात्रि के द्वितीय प्रहर अर्थात् रात्रि 12 बजे के पश्चात् व सूर्योदय से पूर्व का समय जिसे सतोगुणी समय अर्थात् ब्रह्म मुहूर्त कहा जाता है, ही साधना का वास्तविक प्रहर होता है क्योंकि दिन में प्रात: 8 बजे से सायं 4 बजे तक का समय रजोगुणी अर्थात् कर्म का समय होता है जिसमें सूर्य की किरणों, सामाजिक ध्वनि तथा क्रियाकलापों से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण से वायुमण्डल की ऊर्जा  मनुष्य के शरीर के सीधे सम्पर्क में बाधक होती है।  

इसके अतिरिक्त नवरात्र पर्व दो ऋतुओं की संधि का समय होता है जैसे अिन मास में पड़ने वाले नवरात्रि पर्व के दौरान वष्रा ऋतु समाप्त होकर सर्दी का आरम्भ होता है। इस दौरान प्रकृति तथा ग्रहों की ऊर्जाओं में तमाम परिवर्तन होते हैं जिसके कारण वातावरण में संक्रमण बढ़ता है तथा इन्हीं ऊर्जाओं का प्रभाव मनुष्य के मन और शरीर पर पड़ता है। चूंकि मानव शरीर के ऊर्जा चक्रों को बाहरी वातावरण में निरन्तर प्रवाहित उष्मा से ऊर्जा प्राप्त होती है, ऐसे में सूर्य की परिक्रमा के दौरान ऋतुओं के संधिकाल से जब प्रकृति में विशेष प्रकार के परिवर्तन एवं संक्रमण उत्पन्न होते हैं, तो वातावरण में इन बदलावों से उत्पन्न उष्मा में हमारे शरीर की आंतरिक चेतना और शरीर के ऊर्जा चक्र प्रभावित होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप शरीर में त्रिगुणी प्रकृति के पंच तत्वों से निर्मित वात, पित और कफ का असंतुलन होता है, जिससे शरीर में विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं, और शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी प्रभावित होती है जिसको विकसित करने हेतु चार ऋतुओं के संधिकाल पर ही चार नवरात्र पर्व मनाने की परम्परा है, जिसमें दो नवरात्र गुप्त नवरात्र होती है, जिनको साधु-सन्यासी आदि मनाते हैं परन्तु पृथ्वी लोक पर गृहस्थ जीवन में दो ही नवरात्र पर्व बड़े ही धूमधाम से चैत्र मास एवं अिन मास की प्रतिपदा से नवमी के मध्य मनाने की परम्परा है।

इसलिये संक्रमण से बचाव तथा शारीरिक ऊर्जा चक्रों के संतुलन के लिए नवरात्रि पर्व के माध्यम से नौ रात्रियों में मनुष्य व्रत रखकर शरीर और मन की शुद्धि करता है तथा शुद्ध एवं नियंत्रित मन से ब्रrामुहूर्त में ब्रrाण्डीय ऊर्जा के प्रभाव से अपने को जोड़कर किसी शान्त स्थल अथवा पूजा स्थल पर बैठकर अन्तमरुखी होकर ध्यान साधना करने से ऊर्जा शक्तियों का संतुलन स्थापित होता है और तमाम सिद्धियां तो प्राप्त होती ही हैं, साथ ही मनुष्य के शरीर को आरोग्यता तथा अपार आध्यात्मिक शक्तियां भी प्राप्त हो जाती हैं।  नवरात्र पर्व के नौ दिनों के दौरान पूजा-पाठ, कपूर, धूपबत्ती जलाने के साथ ही हवन तथा घण्टे-घड़ियाल की ध्वनियों से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा से प्राकृतिक वातावरण का संक्रमण भी समाप्त होता है।

नवरात्र पर्व का यह अनुष्ठान अष्टांग योग का ही स्वरूप है जिसमें माता के नौ स्वरूपों की ऊर्जा को पहचानने का अवसर प्राप्त होता है। संसार में खान-पान, सामाजिक परिवेश एवं कर्मक्षेत्र के विभिन्न वातावरण में रहकर जब मनुष्य की ऊर्जाओं के प्रदूषित होने से उसकी प्रवृत्ति में बदलाव आ जाता है तो उसे इन नवरात्र की समयावधि में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, एवं प्रत्याहार, ध्यान, धारणा एवं समाधि प्रक्रिया को अपनाकर अपनी ऊर्जाओं का शुद्विकरण करने का अवसर प्राप्त होता है।

आदिशक्ति स्वरूपा माता दुर्गा जी की इन नौ स्वरूपों की ऊर्जाएं ही मनुष्य के शरीर में सात चक्र एवं दो नाड़ियों के रूप में व्याप्त होती है, इन्हीं ऊर्जाओं के असंतुलन से मनुष्यों के अन्दर उनकी प्रकृति रूपी ऊर्जा अर्थात् प्रवृत्ति में विकृति एवं नकारात्मकता का उदय होता है, जिसका संतुलन इन नवरात्र के पर्व के दौरान वत एवं साधना के माध्यम से प्रतिदिन एक-एक चक्र को उर्जित कर उनमें सक्रियता एवं संतुलन स्थापित किया जाता है तथा चक्रों एवं नाड़ियों का शोधन करके किया जाता है। जब कोई साधक इसी प्रक्रिया को ठीक से समझकर पूर्ण निष्ठा, धर्म एवं भाव से अष्टांग योग के नियमों का पालन कर बारम्बार नवरात्र पर्व का अनुष्ठान पूर्ण कर धीरे-धीरे अन्र्तमुखी होता जाता है तो उसे अपनी ऊर्जाओं को संतुलन करने की शक्तियां प्राप्त हो जाती है और वह अपने जीवन के मूल उद्देश्यों की प्राप्ति कर तमाम सिद्धियां एवं आध्यात्मिक शक्तियां प्राप्त करता है।

सुरेन्द्र देशवाल, समय डिजिटल
नई दिल्ली


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