असत्यभाषी
आखिर, हम स्वयं क्या हैं, और अपनी आंखें अपने को किस नजर से देखती हैं?
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
आत्मा की अदालत में इन्साफ की तराजू पर तोले जाएं तो हमारा पलड़ा बुराई की ओर झुकता है या भलाई की ओर। यदि हम अपनी कसौटी पर खरे उतरते हैं, तो गुमराह लोग जो भी चाहे कहते रहें हमें इसकी जरा भी परवाह नहीं करनी चाहिए किन्तु यदि अपनी आत्मा के सामने हम खोटे सिद्ध होते हैं, तो सारी दुनिया के प्रशंसा करते रहने पर भी संतोष नहीं करना चाहिए।
प्रशंसा का सबसे बड़ा कदम यह है कि आदमी अपनी समीक्षा करना सीखे, गलतियों को समझे-स्वीकारे और अगला कदम यह उठाए कि अपने को सुधारने के लिए बुरी आदतों से लड़े और उन्हें हटाकर रहे। जिसने इतनी हिम्मत इकट्ठी कर ली, वह एक दिन इतना नेक बन जाएगा कि अपने आप अपनी भरपूर प्रशंसा की जा सके।
यही सच्ची प्रशंसा कही जा सकेगी। बुराई मनुष्य के बुरे कर्मो की नहीं वरन बुरे विचारों की देन होती है। इसलिए एक बार में ही समाप्त नहीं हो जाती वरन स्वभाव और संस्कार का अंग बन जाती है। ऐसे में बुराई भी भलाई जान पड़ने लगती है। इसलिए बुरे कामों से बचने के लिए बुरे विचारों से बचना चाहिए।
दुष्कर्म का फल तुरन्त भोगकर उसे शान्त किया जा सकता है, पर संस्कार बहुत काल तक नष्ट नहीं होते। जन्म-जन्मांतरों तक साथ-साथ चलते और कष्ट देते हैं। घरेलू और सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि क्रोध के विनाशक परिणामों पर ध्यान दें और उनके उन्मूलन का संपूर्ण शक्ति से प्रयत्न करें। प्राय: देखा गया है कि क्रोध का कारण जल्दबाजी है।
किसी वस्तु की प्राप्ति या इच्छापूर्ति में कुछ विलम्ब लगता है तो लोगों को क्रोध आ जाता है, इसलिए अपने स्वभाव में धैर्य और संतोष का विकास करना चाहिए। असत्य से किसी स्थायी लाभ की प्राप्ति नहीं होती। यह तो धोखे का सौदा है, लेकिन खेद का विषय है कि लोग फिर भी असत्य का अवलम्बन लेते हैं। एक दो बार भले ही असत्य से कुछ भौतिक लाभ प्राप्त कर लिया जाए किन्तु फिर सदा के लिए ऐसे व्यक्ति से दूसरे लोग सतर्क हो जाते हैं, उससे दूर रहने का प्रयत्न करते हैं। असत्यभाषी को लोक निन्दा का पात्र बनकर समाज से परित्यक्त जीवन बिताना पड़ता है। धोखेबाज, झूठे, चालाक व्यक्ति का साथ उसके स्त्री-बच्चे भी नहीं देते।
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