शाश्वत प्रेम
लोग ऐसा प्रेम नहीं चाहते जो क्षणभंगुर हो। वे एक सरसरी नज़र या अल्पकालीन मिलन नहीं चाहते।
![]() संत राजिन्दर |
वे एक शाश्वत दृष्टि, एक शात मिलन चाहते हैं - अपने प्रियतम के साथ एकमेक होने की शाश्वत अवस्था में रहना चाहते हैं।
इस भौतिक संसार के सबसे उत्तम व करीबी रिश्ते भी अंतत: खत्म हो जाते हैं, क्योंकि इस संसार का नियम ही ऐसा है। हमारे भौतिक स्वरूप का अंत होना सुनिश्चित है। जब हम जीवन की अनिश्चितता के बारे में जानते हैं, तो हम एक ऐसा प्रेम चाहते हैं जो अनवर हो। उसे हम प्रभु रूपी शाश्वत प्रेम के महासागर में तैरकर पा सकते हैं। प्रभु का प्रेम नर नहीं होता।
जब हम प्रभु से प्रेम करने लगते हैं, तो हम एक ऐसे प्रियतम से प्रेम करने लगते हैं जो मृत्यु के द्वार के परे भी हमारे साथ रहता है। जब हम प्रभु के निर्मल, पवित्र महासागर में तैरते हैं, तो हम अपने सच्चे स्वरूप का, अपनी आत्मा का, प्रतिबिंब देख पाते हैं।
वहां उसको दूषित करने वाली कोई मैल या गंदगी नहीं होती। बिना किसी ऐसी वस्तु के जो हमारे ध्यान को भंग करे, हम महासागर की गहराई में झांक पाते हैं। उसकी प्रेममयी लहरें हमसे टकराती रहती हैं। यहां हमारी शांति को भंग करने वाला कोई भौतिक आकर्षण नहीं होता। क्षणिक सांसारिक सुखों के बजाय हम प्रभु के शात प्रेम का अनुभव करने लगते हैं। जब हम प्रभु के महासागर में तैरते हैं, तो हम दिव्य आनंद का अनुभव करते हैं। हमारे अंतर में दिव्य जल का आनंदकारी सरोवर सदैव विद्यमान रहता है।
हम किसी भी समय इसमें डुबकी लगा सकते हैं। जब हम इस सरोवर में जाते हैं, तो हम समस्त चिंताओं से मुक्त हो जाते हैं। हम पूर्णतया तनावरहित हो जाते हैं। हमारे मन व आत्मा में परमानंद समा जाता है। जब हमारी आत्मा इसमें इस आंतरिक ‘स्पा’ में स्नान करती है, तो वो शांति से भरपूर हो जाती है।
जब हमारी आत्मांत होती है, तो हमारा मन और शरीर भी स्वाभाविक रूप सेांत हो जाते हैं। जब हम प्रभु के साथ तैरते हैं, हम में दुनियावी भोगों की कोई चाह नहीं रहती, क्योंकि प्रभु का प्रेम हमें संतुष्ट कर देता है। जब हम प्रभु के साथ तैरते हैं, तो जो आजाद हमारी आत्मा में रम जाता है, वह किसी भी दुनियावी संतुष्टि से हजारों गुणा अधिक होता है।
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