सत्य
सत्य और तत्त्व से अनभिज्ञ लोग संकल्पवान होने का मतलब हठी होना समझ लेते हैं पर नहीं, अंतस में केंद्रित होने के साथ आवश्यक है विनम्रता, ग्रहणशीलता और गुरु की चेतना की ओर खुला होना।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
जो तैयार है, सचेत है, प्रतीक्षारत और प्रार्थनामय है, उसी में सीखने की क्षमता आती है। यह सीखना गुरु के सान्निध्य में होता है। गुरु के हृदय में जल रही सत्य की ज्योति के संस्पर्श से ही शिष्य के हृदय की ज्योति जलती है। यही है सत्संग का मतलब।
सत्संग का मतलब है सत्य का गहरा सान्निध्य। इसका अर्थ है, सत्य के पास होना, उन गुरु के अनुशासन में रहना, जो सत्य से एकात्म हैं। बस गुरु के निकट बने रहना, खुले हुए ग्रहणशील और प्रतीक्षारत। साधक की यह प्रतीक्षा गहरी और सघन हो जाती है, तब एक गहन आत्म-मिलन घटित होता है। दरअसल, गुरु के बताए गए अनुशासनों में उनकी चेतना तरंगित होती है। इन्हें स्वीकारने और अपनाने का अर्थ है-उनकी चेतना स्वीकारना, अपनाना। शिष्यत्व के प्रकट होते ही साधक को अलग ही भाषा समझ में आने लगती है।
तब शारीरिक निकटता भी जरूरी नहीं है, क्योंकि नई भाषा है ही गैर-शारीरिक। तब दूरी से कोई फर्क नहीं पड़ता, शिष्य एवं गुरु का संपर्क बना रहता है। केवल स्थान की दूरी ही नहीं, समय से भी कोई अंतर नहीं पड़ता। गुरु का शरीर चाहे न भी रहे, लेकिन शिष्य का संपर्क तब भी बना रहता है। भौतिक शरीर को त्यागने के बावजूद गुरु -शिष्य बड़े मजे से मिलते रहते हैं। बिना बाधा या व्यवधान के उनमें भावों एवं विचारों का आदान-प्रदान चलता रहता है। यह चमत्कार है योग के अनुशासन का। गुरु द्वारा दिए गए व्रतबंध को श्रद्धापूर्वक स्वीकारने से शिष्य के जीवन में अनेक चमत्कार घटते हैं।
कोई गुरु कभी भी अपने शिष्य से दूर नहीं होता। कभी मरता नहीं, खासकर उनके लिए, जो श्रद्धा सहित उसके अनुशासन को स्वीकार कर सकते हैं। वह उनकी मदद करता रहता है। हमेशा यहां ही होता है-शिष्य के पास। उसका सच्चा वासस्थान तो अपने शिष्य का हृदय होता है। प्रेम, श्रद्धा एवं आस्था स्थान और समय दोनों को मिटा देती है। अनुशासन देने वाला गुरु और प्राणपण से गुरु के अनुशासन को मानने वाला शिष्य, दोनों एकदम पास-पास होते हैं। उनमें सदा ही सत्संग चलता रहता है।
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