पात्रता
पात्रता के अभाव में सांसारिक जीवन में किसी को शायद ही कुछ विशेष उपलब्ध हो पाता है।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
अपना सगा होते हुए भी एक पिता गैर-जिम्मेदार पुत्र को अपनी विपुल सम्पत्ति नहीं सौंपता। कोई भी व्यक्ति निर्धारित कसौटियों पर खरा उतर कर ही विशिष्ट स्तर की सफलता अर्जित कर सकता है। मात्र मांगते रहने से कुछ नहीं मिलता, हर उपलब्धि के लिए उसका मूल्य चुकाना पड़ता है। बाजार में विभिन्न तरह की वस्तुएं दुकानों में सजी होती हैं, पर उन्हें कोई मुफ्त में कहां प्राप्त कर पाता है? अनुनय-विनय करने वाले तो भीख जैसी नगण्य उपलब्धि ही करतलगत कर पाते हैं। पात्रता के आधार पर ही शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय आदि क्षेत्रों में भी विभिन्न स्तर की भौतिक उपलब्धियां हस्तगत करते सर्वत्र देखा जा सकता है। अध्यात्म क्षेत्र में भी यही सिद्धांत लागू होता है।
भौतिक क्षेत्र की तुलना में अध्यात्म के प्रतिफल कई गुना अधिक महत्त्वपूर्ण, सामथ्र्यवान और चमत्कारी हैं। किन्हीं-किन्हीं महापुरुषों को देख-सुनकर हर व्यक्ति के मुंह में पानी भर आता है तथा उन्हें प्राप्त करने के लिए मन ललचाता है, पर अभीष्ट स्तर का आध्यात्मिक पुरुषार्थ न कर पाने के कारण उस ललक की आपूर्ति नहीं हो पाती। पात्रता के अभाव में अधिकांश को दिव्य आध्यात्मिक विभूतियों से वंचित रह जाना पड़ता है जबकि पात्रता विकसित हो जाने पर बिना मांगे ही वे साधक पर बरसती हैं। प्रकाश की ओर चलने पर छाया पीछे-पीछे अनुगमन करती है।
अंधकार की दिशा में बढ़ने पर छाया आगे आ जाती है, उसे पकड़ने का प्रयत्न करने पर भी वे पकड़ में नहीं आतीं। इसी प्रकार अर्थात् दिव्यता की ओर-श्रेष्ठता की ओर परमात्म पथ की ओर बढ़ने पर छाया अर्थात् ऋद्धि-सिद्धियां साधक के पीछे-पीछे चलने लगती हैं। दिव्यता की ओर बढ़ने का अर्थ है-अपने गुण, कर्म, स्वभाव को इतना परिष्कृत, परिमार्जित कर लेना कि आचरण में देवत्व प्रकट होने लगे। इच्छाएं, आकांक्षाएं देवस्तर की बन जाएं। आत्म विकास की इस स्थिति पर पहुंचे हुए साधक की, ऋद्धियां-सिद्धियां सहचरी बन जाती हैं। पर इन अलौकिक विभूतियों को प्राप्त करने के बाद वे उनका प्रयोग कभी भी अपने लिए अथवा संकीर्ण स्वार्थों के लिए नहीं करते। संसार के कल्याण के लिए ही वे उन शक्तियों का सदुपयोग करते हैं।
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