सकारात्मक सोच
सारी दुनिया में बहुत सारे लोग ‘सकारात्मक सोच’ के बारे में बात करते हैं। जब आप सकारात्मक सोच की बात कर रहे हैं तो एक अर्थ में आप वास्तविकता से दूर भाग रहे हैं।
![]() जग्गी वासुदेव |
आप जीवन के सिर्फ एक पक्ष को देखना चाहते हैं और दूसरे की उपेक्षा कर रहे हैं।
आप तो उस दूसरे पक्ष की उपेक्षा कर सकते हैं लेकिन वो आप को नजरअंदाज नहीं करेगा। अगर आप दुनिया की नकारात्मक बातों के बारे में नहीं सोचते तो आप एक तरह से मूखरे के स्वर्ग (अवास्तविक दुनिया) में जी रहे हैं और जीवन आप को इसका सबक अवश्य सिखाएगा। अभी, मान लीजिए, आकाश में गहरे काले बादल छाए हैं। आप उनकी उपेक्षा कर सकते हैं मगर वे ऐसा नहीं करेंगे। जब वे बरसेंगे तो बस बरसेंगे।
आप को भिगोयेंगे तो भिगोयेंगे ही। आप इसे नजरंदाज कर सकते हैं और सोच सकते हैं कि सबकुछ ठीक हो जाएगा-इसकी थोड़ी मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रासंगिकता हो सकती है पर अस्तित्व, वास्तविकता की दृष्टि से यह सुसंगत नहीं होगा। यह सिर्फ एक सांत्वना होगी। वास्तविकता से अवास्तविकता की ओर बढ़ते हुए, आप अपने आप को सांत्वना, धीरज दे सकते हैं।
इसका कारण यह है कि आप को कहीं पर ऐसा लगता है कि आप वास्तविकता को संभाल नहीं सकते। और शायद आप नहीं ही संभाल सकते, अत: आप इस सकारात्मक सोच के वशीभूत हो जाते हैं कि आप नकारात्मकता को छोड़ना चाहते हैं और सकारात्मक सोचना चाहते हैं। या, दूसरे शब्दों में कहें तो आप नकारात्मकता से दूर जाना, उसका परिहार करना चाहते हैं। आप जिस किसी चीज का परिहार करना चाहें, वही आप की चेतना का आधार बन जाती है। आप जिसके पीछे पड़ते हैं, वह आप की सबसे ज्यादा मजबूत बात नहीं होती।
आप जिससे दूर जाना चाहें, वो ही आप की सबसे मजबूत बात हो जाएगी। वो कोई भी, जो जीवन के एक भाग को मिटा देना चाहता है और दूसरे के ही साथ रहना चाहता है, वह अपने लिये सिर्फ दुख ही लाता है। आप जिसे सकारात्मक और नकारात्मक कहते हैं, वो क्या है? पुरुषत्व और स्त्रीत्व, प्रकाश और अंधकार, दिन और रात। जब तक ये दोनों न हों, जीवन कैसे होगा? यह कहना वैसा ही है जैसे आप कहें कि आप को सिर्फ जीवन चाहिये, मृत्यु नहीं।
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