सत्कार्य
सत्कार्य के प्रति समर्पण ही तुम्हें धरती और धरती की आत्मा की रफ्तार के साथ चल सकने की सामथ्र्य देता है, निठल्ला होना तो मौसम की बहारों के लिए अजनबी बन जाना है और जीवन की उस शोभा यात्रा से अलग-थलग हो जाना है, जो अनन्त को शानदार समर्पण करती हुई अपने समूचे ऐश्वर्य एवं आन-बान के साथ निकल रही है।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
कार्य करते हुए तुम वह बांसुरी बन जाते हो, जिसके हृदय से समय की सांस गुजरती है और संगीत में बदल जाती है।
आखिर, तुम में से कौन है, जो गूंगा बने रहना चाहेगा, उस वक्त जब सारा संसार एक ही बांसुरी के स्वरों में शामिल हो रहा है? सत्कर्म में डूबे रहना ही सही अथरे में जिंदगी से प्यार करते रहना है। जिंदगी को कर्म के माध्यम से प्यार करना ही उसके अंतरंग रहस्यों को बारीकी से जान लेना है, किन्तु तुम अपने कष्टों से घबराकर कहने लगे कि तुम्हारा जन्म विपत्ति है तो मेरा उत्तर यही है कि तुमसे यह भी कहा गया होगा कि जीवन अंधकारमय है। मैं भी कहता हूं कि जीवन सचमुच अंधकारमय है, यदि आकांक्षा न हो। सारी आकांक्षाएं अंधी हैं, यदि ज्ञान न हो।
सारा ज्ञान व्यर्थ है, यदि कर्म न हो। सारा कर्म खोखला है, यदि प्रभु-प्रेम न हो। जब तुम प्रभु प्रेम से प्रेरित होकर कर्म करते हो तो विश्व मानवता के लिए स्वयं को अर्पित करते हो क्योंकि विात्मा का साकार रूप ही तो विश्व है। प्रभु प्रेम से प्रेरित कर्म क्या होता है? अपने हृदय से खींचकर काते गए सूत से कपड़ा बुनना है, मानो स्वयं प्रभु ही पहनने वाले हों, उसे। यह इतने प्यार से भवन निर्माण करना है, मानो सव्रेर स्वयं ही रहने वाले हों वहां। इतनी कोमलता से बीज बोना और इतने आनन्दित होकर फलों का संचय करना है, मानो स्वयं प्रभु ही खाने वाले हों, वे फल।
यह अपने हाथों किए गए प्रत्येक कर्म को अपनी दिव्यता की ऊर्जा से भर देना है और महसूस करना है, मानो समस्त निर्जीव सत्ताएं तुम्हारे आसपास खड़ी तुम्हारे कर्मो को निहार रही हों। पवन जो संवाद शाह बलूत सेकरता है, वह उसकी अपेक्षा अधिक मीठा नहीं होसकता, जो वह घास के तिनकों से करता है। केवल वही व्यक्ति महान है, जो अपने कर्म से पवन के स्वरों को एक गीत में बदल देता है और अपने भगवत्प्रेम से उस गीत की मिठास को प्रगाढ़ कर देता है। प्रभु प्रेम को दृष्टिगोचर बना देना ही सत्कर्म है।
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