फिल्म में डेस्टिनेशन वेडिंग थाइलैंड में होती है पर भारतीय समाज में शादी के जो रीति रिवाज होते हैं, उसको बारीकी से दर्शाया गया है।
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फिल्म की कहानी आज के परिवेश की है, लेकिन इसमें पारिवारिक मूल्यों और आज के युवाओं की आधुनिक सोच को गंभीरता से रुपहले पर्दे पर दिखाया गया है।
फिल्म की कहानी डेस्टिनेशन वेडिंग पर आधरित हैं। देव सराफ को अपने भी बचपन की दोस्त अलीना की शादी में जाना पड़ता है जिसे वह बचपन से बहुत प्यार करता है। देव के दोस्त समझाते हैं कि स्टेशन पर बैठकर ऐसी ट्रेन का इंतजार करने से क्या फायदा, जो ट्रेन उस स्टेशन पर आती ही नहीं। दूसरी ट्रेन पकड़ने के लिए उसे दूसरे स्टेशन पर जाना पड़ेगा या फिर उसी स्टेशन पर आने वाली दूसरी ट्रेन को पकड़ना पड़ेगा। तभी उसको नई मंजिल मिलेगी ।
देव सराफ शादी में शामिल होता है। यहां देव की मुलाकात मेघना जोशी से होती है। छह साल तक रिलेशनशिप में रहने के बाद उसका ब्रेक अप हो जाता है। देव और मेघना दोनो एक दूसरे को समझने की कोशिश करते हैं और एक ख़ूबसूरत सी प्रेम कहानी के साथ फिल्म आगे बढ़ती है।
फिल्म ‘दोनो’ की कहानी अवनीश बड़जात्या ने मनु शर्मा के साथ मिलकर लिखी है। राजश्री की फिल्मों का जिस तरह का फ्लेवर होता है। वैसा पूरा फ्लेवर इस फिल्म में बखूबी दिखा है।
अवनीश बड़जात्या ने यहां ये बताने की भी कोशिश की है कि जब किसी भी काम में लड़के और लड़की दोनों की समान भागीदारी है तो दोष सिर्फ लड़की के सिर पर क्यों?
डेस्टिनेशन वेडिंग थाइलैंड में है। लेकिन, भारतीय समाज में शादी के जो रीति रिवाज होते हैं, उसकी एक एक बारीकी को अवनीश बड़जात्या ने दर्शाया है।
फिल्म में राजवीर देओल और पलोमा की जोड़ी एक दम फ्रेश है। इतनी एक्टिंग से लगता कि फिल्म में दोनों एक्टिंग नहीं कर रहे हैं। बिल्कुल नेचुरल हाव भाव । फिल्म के हीरो, हीरोइन की बजाय आम इंसान ही नजर आते हैं। इन दोनो का सहज अभिनय काफी प्रभावित करता है।
फिल्म के सभी कलाकार अपनी अपनी भूमिका में फिट बैठते है। राजवीर देओल और पलोमा के अलावा आदित्य नंदा, कनिका कपूर, रोहन खुराना, गरिमा अग्रवाल और बाकी कलाकारों ने अपने अपने किरदार के साथ पूरी तरह से न्याय करते हैं।
कुछ जगह फिल्म कमज़ोर पड़ गई जैसे कि इसका संगीत। अवनीश ने इसमें राजश्री प्रोडक्शन्स की परंपरा को थोड़ा बदलने की कोशिश की है फिल्म के आठ गानों में ऐसा कोई गीत नहीं जो लंबे समय तक याद किया जा सके।
शंकर-एहसान-लॉय की ये बड़ी चूक है। जॉर्ज जोसेफ का बैकग्राउंड स्कोर फिल्म के दृश्यों को प्रभावशाली बनाता है। चिरंतन दास की सिनेमैटोग्राफी अच्छी है, फिल्म को बड़े ही भव्य स्तर पर शूट किया है। दूसरी कमजोर कड़ी फिल्म की श्वेता वेंकट मैथ्यू का संपादन है। इसके चलते फिल्म का प्रवाह भी थोड़ा सुस्त है। फिल्म के कास्ट्यूम अच्छे हैं, फिल्म के दृश्य के मुताबिक उसे अच्छा डिजाइन किया गया है।
| | सहारा समय डिजिटल | नई दिल्ली |
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