सियासी गठजोड़, मेल-मुलाकातों की होड़

Last Updated 13 Jun 2021 12:10:53 AM IST

देश में कोरोना का ग्राफ नीचे आने के साथ ही सियासी पारा ऊपर जाने लगा है। मौसम की जुबान में कहें, तो जिस तरह देश में मानसून तेजी से अपने पैर पसार रहा है, उसी तरह सियासी मेल-जोल और नये गठजोड़ की संभावनाएं भी रफ्तार पकड़ रही हैं।


सियासी गठजोड़, मेल-मुलाकातों की होड़

उत्तर प्रदेश से लेकर पश्चिम बंगाल तक और पंजाब से लेकर कर्नाटक तक हर राज्य इस सियासी बारिश से तर हो रहा है। हालांकि दिलचस्प बात यह है कि यह बारिश ठंडक लाने के बजाय सियासी गर्मी को बढ़ा रही है।

बेशक, उत्तर प्रदेश से इस प्रक्रिया की शुरु आत न हुई हो, लेकिन देश की राजनीति में सूबे की अहमियत को देखते हुए किसी भी सियासी चर्चा में उसे केंद्र बिंदु बनने का एक तरह का नैसर्गिक अधिकार मिला हुआ है। उत्तर प्रदेश के लिए कहा जाता है कि प्रधानमंत्री की राह इसी राज्य से निकलती है और संयोग से यहां के मसलों से जुड़ी मेल-मुलाकातों का एक सिरा प्रधानमंत्री से भी जुड़ रहा है। बीते पूरे हफ्ते में उत्तर प्रदेश में बीजेपी और संघ से जुड़े नेताओं की खासी सक्रियता देखने को मिली। मीडिया में इसे योगी सरकार का रिपोर्ट कार्ड तैयार करने की कवायद का नाम दिया गया, जो अगले साल होने जा रहे विधानसभा चुनाव को देखते हुए एक स्वाभाविक प्रक्रिया लगती है।

चौंकाने वाला रहा इस प्रक्रिया का क्लाइमेक्स, जब योगी खुद ‘फाइनल प्रेजेंटेशन’ के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से रू-ब-रू होने के लिए दिल्ली पहुंच गए। उत्तर प्रदेश में बड़े परिवर्तन, विधायकों की नाराजगी और दिल्ली-लखनऊ के बीच खींचतान की अटकलों के बीच हुए इस मेल-मिलाप के बाद अब यह बात निकल कर आ रही है कि केंद्रीय नेतृत्व का मुख्यमंत्री योगी पर भरोसा पूरी तरह कायम है और विधानसभा चुनाव उन्हीं की कमान में लड़ा जाएगा। प्रदेश की सत्ता पर पार्टी की पकड़ और मजबूत करने के लिए राष्ट्रीय नेतृत्व की ओर से उन्हें वंचित तबके के कल्याण और उनसे जुड़ी केंद्र और राज्य की योजनाओं को और विस्तार देने की सलाह दी गई है।

मुख्यमंत्री योगी के दिल्ली दौरे के पीछे दिलचस्पी की एक वजह और थी, हाल के दिनों में उनका मुखर विरोध करने वाले ब्राह्मण नेता और राहुल गांधी के करीबी जितिन प्रसाद का कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आना। जितिन प्रसाद पिछले कुछ दिनों से योगी सरकार की छवि को ब्राह्मण विरोधी बताने की मुहिम में जुटे हुए थे। बीजेपी उम्मीद कर रही है कि जितिन के आने से विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण वोट उसके पक्ष में एकजुट होगा, लेकिन उनको ‘एडजस्ट’ करने में सूबे की सियासत को कई झटके लगना भी तय माना जा रहा है। अभी तो केवल कांग्रेस इसकी शिकार हुई है।

राजस्थान और पंजाब में इस झटके का ‘एक्शन रीप्ले’ टालने के लिए दिल्ली में कांग्रेस में भी मेल-मुलाकातों का दौर देखने को मिल रहा है। राजस्थान में सचिन पायलट 10 महीने से नाराज चल रहे हैं और अब उनके समर्थक इस बात से और ज्यादा नाराज हो गए हैं कि पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले नवजोत सिंह सिद्धू की बात को तीन महीने में सुना जा रहा है, तो उनके नेता को इतना लंबा इंतजार क्यों करवाया जा रहा है। इस भेदभाव को यूं भी समझा जा सकता है कि पंजाब का संकट टालने के लिए तो हाईकमान ने कैप्टन और सिद्धू को बुलावा देकर दिल्ली तलब किया, जबकि सचिन पायलट को बिन बुलाए मेहमान की तरह दिल्ली-जयपुर के बीच ‘अप-डाउन’ करना पड़ रहा है। हालांकि कांग्रेस राजस्थान को लेकर भी गंभीर दिख रही है, लेकिन पायलट से उसे दो वजहों से ज्यादा खतरा नहीं दिख रहा  पहला यह कि वो अपने दोस्त जितिन प्रसाद की तरह कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में नहीं जाने वाले और दूसरा यह कि इस बार उनके खेमे में उतने विधायक नहीं दिख रहे हैं, जो राजस्थान में तख्तापलट कर सकें।

उधर मध्य प्रदेश में ठीक ऐसा कर चुके ज्योतिरादित्य सिंधिया भी लाख जतन के बावजूद अपनी बेचैनी नहीं छिपा पा रहे हैं। सिंधिया को बीजेपी में आए सवा साल हो चुके हैं, लेकिन वो अभी भी ‘केवल’ राज्य सभा सदस्य हैं जो वो कांग्रेस में रहते हुए भी थे। सियासत में अपना ओहदा बढ़ाने के लिए सिंधिया भी ग्वालियर-भोपाल वाया दिल्ली के फेरे लगा रहे हैं। बीते हफ्ते भोपाल के दौरे पर उन्होंने सत्ता और संगठन से लेकर संघ की चौखट तक नाप दी। उनको लेकर अटकलें हैं कि शायद केंद्रीय कैबिनेट के विस्तार में उनकी सुनवाई हो जाए, लेकिन सिंधिया से इतर भी मध्य प्रदेश बीजेपी में नये गठजोड़ की सुगबुगाहट है। प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा, पश्चिम बंगाल के प्रभार से हाल ही में मुक्त हुए कैलाश विजयवर्गीय, पूर्व गृह मंत्री भूपेंद्र सिंह, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा, मौजूदा अध्यक्ष वीडी शर्मा, केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद पटेल के बीच बंद कमरों में हुई बैठकों को इससे जोड़ कर देखा जा रहा है। हालांकि मीडिया के कैमरों पर हमने इनमें से कुछ नेताओं के बयान भी सुने हैं, जिनमें मुख्यमंत्री शिवराज के प्रति असंदिग्ध निष्ठा का प्रदर्शन है।

उधर महाराष्ट्र में एक बार फिर बंद दरवाजे में हुई बैठक के बाद राजनीतिक सरगर्मी बढ़ने लगी है। प्रधानमंत्री मोदी और राज्य के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की मुलाकात के बाद शिवसेना के सुर बदल गए हैं। महाराष्ट्र में ऐसा पहले भी होता रहा है। 2019 में अमित शाह और उद्धव ठाकरे के बीच हुई मीटिंग के सात महीने बाद राज्य की राजनीति ही बदल गई थी। उसके बाद एनसीपी-बीजेपी की मीटिंग के बाद भी हलचल हुई थी और अब उद्धव और पीएम मोदी की मीटिंग के बाद भी ऐसे ही हालात हैं। बैठक के बाद जिस तरह शरद पवार ने बाला साहेब का उदाहरण देकर शिवसेना को मुश्किल वक्त का वादा न भूलने की नसीहत दी है, इससे महाअघाड़ी में एक-दूसरे पर भरोसे की कमी का भी पता चलता है। खासकर दो महीने पहले शरद पवार और अमित शाह की अहमदाबाद में हुई कथित मुलाकात के बाद अब इस तरह प्रधानमंत्री के साथ उद्धव की अकेले में चर्चा से लगता है कि वो चेक एंड बैलेंस का गेम खेल रहे हैं। शुक्रवार को चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर से शरद पवार की मुलाकात कहीं उद्धव से चेक मेट के अंदेशे का पूर्वानुमान तो नहीं है?

मेल-मुलाकातों वाली इस राजनीति में देश के दो सबसे सियासी साक्षर राज्य-बंगाल और बिहार-भी पीछे नहीं हैं। बंगाल में हाल ही में चुनाव हुए हैं और ममता बनर्जी की बंपर जीत के बाद कमल के फूल से तृणमूल में वापसी का दौर शुरू हो गया है। मुकुल रॉय को शुभेंदु अधिकारी को मिल रही तवज्जो के बाद बीजेपी पराया घर लगने लगी, लिहाजा वो ‘घर के लड़के’ वाली ‘ममता’ के आकर्षण में दोबारा तृणमूल में लौट गए। प्रधानमंत्री का फोन भी उन्हें बीजेपी में रोक नहीं पाया। उधर बिहार में भी मुख्यमंत्री नीतीश के दोस्त और ‘हम’ के मुखिया जीतनराम मांझी आजकल लालू परिवार से नजदीकी बढ़ाते दिख रहे हैं। पहले लालू प्रसाद यादव को शादी की सालगिरह की बधाइयां दीं और फिर जब जन्मदिन पर लालू से मिलने दिल्ली नहीं जा सके, तो बेटे तेज प्रताप के साथ पटना में ही बंद कमरे में मुलाकात कर ली। पिछले दिनों मांझी ऐसी ही एक मुलाकात वीआईपी अध्यक्ष मुकेश सहनी से भी कर चुके हैं। हालांकि इन मुलाकातों में क्या बातें हुई, मिलने वालों के अलावा किसी को पता नहीं, लेकिन आरजेडी को इसमें एनडीए में फूट दिखाई दे रही है।

सार यही है कि देश के सामान्य जनजीवन से लेकर अर्थव्यवस्था को भले ही पटरी पर लौटने में वक्त लगे, लेकिन सियासत अब कोरोना के रोके भी रु कने को तैयार नहीं। अभी मेल-मुलाकातों की हल्की बौछारें शुरू हुई हैं, लेकिन संकेत साफ है। अगले एक साल में उत्तर प्रदेश, पंजाब समेत पांच राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के चुनाव हैं। यानी आने वाले समय में सियासी बादल गरजेंगे भी, चमकेंगे भी और सियासत में आगे निकलने की होड़ कई नये गठजोड़ की वजह बनेगी।

उपेन्द्र राय


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