सीरिया का पतन-जश्न या मातम
दुनिया के नक्शे से देखते-देखते एक देश विलुप्त हो रहा है। गाजा नर-संहार के बाद यह दूसरी घटना थी जिसने संयुक्त राष्ट्र जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के नकारापन को साबित किया। सीरिया के पतन पर कुछ देश जश्न मना रहे हैं और कुछ मातम।
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निर्दोष लोगों की मौत से अधिक चर्चा इस बात की है कि किसका फायदा हुआ और किसका नुकसान। भू-रणनीतिक दृष्टि से माना जा रहा है कि ईरान और रूस का नुकसान जबकि इस्रइल, तुर्की और अमेरिका का फायदा हुआ। सरसरी तौर पर सबसे अधिक नुकसान ईरान का हुआ। पश्चिम एशिया में सीरिया और हिज्बुल्लाह ईरान के ऐसे सहयोगी थे जो इस्रइल के खिलाफ ढाल का काम करते थे। गाजा के साथ एकजुटता प्रदर्शित करने के प्रयास में हिज्बुल्लाह और लेबनान इस्रइल की सैनिक कार्रवाई का शिकार बने। हिज्बुल्लाह का प्राय: पूरा नेतृत्व मारा गया तथा उसके सैन्य आधारभूत ढांचे को भारी क्षति हुई।
इसी तरह पश्चिम एशिया के एकमात्र धर्म-निरपेक्ष देश सीरिया के पतन से ईरान और रूस ने अपना प्रमुख सहयोगी देश खो दिया। इस घटनाक्रम से इस्रइल को सबसे अधिक फायदा हुआ। कुछ मायनों में इस्रइल की उपलब्धि वर्ष 1948, 1967 और 1973 में हासिल हुई विजय से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। फिलिस्तीनी क्षेत्र पर इस्रइल के कब्जे को कहीं से चुनौती नहीं है। इतना ही नहीं, इस्रइल अपने सीमा क्षेत्र का विस्तार कर रहा है। इस्रइल, अमेरिका और पश्चिमी देशों के लिए अब खुला मैदान है कि वे मनमाने तरीके से पश्चिम एशिया में नया राजनीतिक ढांचा खड़ा करें। जाहिर है कि ऐसा करते समय वे उस क्षेत्र के लोगों के हितों की बजाय अपने भू-रणनीतिक हितों को महत्त्व देंगे।
जैसा कि आम तौर पर होता है हार के बाद दोषारोपण का सिलसिला शुरू हो जाता है। ईरान और रूस पर आरोप लगाया जा सकता है कि उन्होंने समय रहते सीरिया के नेता बशर अल-असद की मदद नहीं की। लेकिन हकीकत है कि ईरान इस्रइल के संभावित हमले के मद्देनजर अपनी सुरक्षा में व्यस्त है। वहीं रूस यूक्रेन युद्ध में उलझा है। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन जाते-जाते रूस के खिलाफ किस ब्राह्स्र का प्रयोग करेंगे इसे लेकर क्रेमलिन चिंतित है। यूक्रेन डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के पहले कोई दुस्साहस कर सकते हैं।
सीरिया के घटनाक्रम में मजहबी फिरकापरस्ती ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। शिया और सुन्नी देशों के बीच वैमनस्य इतना खुलकर कभी सामने नहीं आया था। हाल के महीनों में ऊपरी तौर पर सीरिया और सुन्नी बहुल देशों के बीच मेल-मिलाप के संकेत मिले थे। अब स्पष्ट है कि यह दिखावा मात्र था। तुर्की, संयुक्त अरब अमीरात, कतर और सऊदी अरब जैसे सुन्नी देशोां ने सीरिया के पतन में बड़ी भूमिका निभाई। तुर्की के राष्ट्रपति अदरेगन तो अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा में हद पार गए। इस्राइल और तुर्की सीरिया के भू-क्षेत्र की बंदरबांट में लगे हैं। अर्देगन ने ईरान और रूस के साथ विश्वासघात किया है।
रूस के राष्ट्रपति ब्लादीमिर पुतिन तुर्की के साथ क्या रवैया अपनाते हैं, यह आने वाले दिनों में स्पष्ट होगा। संभव है कि यूक्रेन में युद्ध के बाद पुतिन अर्देगन से हिसाब चुकता करें। फिलहाल, रूस की प्राथमिकता सीरिया में अपने वायु सैनिक और नौसैनिक अड्डों की सुरक्षा है। इसके लिए रूस सीरिया में काबिज जेहादी संगठनों के साथ संपर्क में है। वैसे रूस सैनिक ताकत के बलबूते भी अपने सैन्य अड्डों की सुरक्षा कर सकता है, लेकिन उसकी प्राथमिकता होगी कि आतंकवादी संगठन हयात तहरीर अल शाम (एचटीएस) से सैन्य अड्डों की सुरक्षा की गारंटी हासिल करे। दूरगामी दृष्टि से सीरिया में सैन्य अड्डे रखना रूस के लिए शायद संभव न हो।
इस्लामी जगत में सीरिया के पतन को शिया-सुन्नी के चश्मे से देखा गया। मुस्लिम जगत में बुद्धिजीवी, मीडिया और सिविल सोसाइटी के कुछ तबके सीरिया के पतन को तानाशाह से निजात के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। दूसरा तबका इसे जेहादी गुटों के वर्चस्व के रूप में देख रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि तबाही के शिकार गाजा के सुन्नी अनुयायी एक शिया नेता बशर अल असद की हार पर खुशी जाहिर कर रहे हैं। मजहब से इतर वास्तव में यह घटनाक्रम राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता पर साम्राज्यवाद और मजहबी कट्टरता की जीत है।
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