‘साबरमती रिपोर्ट’ का सच
जेएनयू में ‘साबरमती रिपोर्ट’ (Sabarmati Report) नामक फिल्म दिखाई गई तो कुछ तत्वों ने विरोध में पत्थर फेंके।
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दिखाने वाले कहे कि यह वामपंथियों की करतूत है, टुकड़े- टेकड़े गैंग की करतूत है, यह देखने की आजादी पर हमला है। संविधान पर हमला है..तो जवाब आया, जो सोशल मीडिया में अधिक दिखा, कि यह फिल्म नहीं, बल्कि ‘हिन्दुत्ववादी एजेंडे’ का प्रचार करती है।
फिर यह विवाद चैनलों में आ बैठा और वहां भी दो तर्क आमने-सामने रहे। एक कहता कि यह फिल्म अब तक छिपाए-दबाए गए ‘गोध’ के सच को दिखाती है, और बताती है कि किस तरह ‘गोध स्टेशन’ के पास, अयोध्या से लौटते कारसेवकों के एक डिब्बे को एक धर्म के कुछ रेडिकल तत्वों ने पेट्रोल आदि डाल कर जिंदा जला दिया था..। यह फिल्म इस सच को सामने लाती है। विपक्षी तर्क रहे कि यह गुजरात के दंगों के ‘दोषियों’ को छिपाने और उनके रोल को बैलेंस करने के लिए बनाई गई है। यह प्रचार फिल्म है, कोई ‘रचनात्मक कहानी’ नहीं। यह एक ‘राजनीतिक एजेंडे’ द्वारा ‘बनाई गई’ प्रचार फिल्म है, ‘कलात्मक’ नहीं।
पक्षधरों का कहना रहा कि ऐसे ही आरोप ‘कश्मीर फाइल्स’ और ‘केरल स्टोरी’ पर भी लगाए गए कि ये ‘राजनीतिक प्रचार फिल्म’ हैं, इनमें कलात्म्कता नहीं है। इसी तरह कुछ विपक्षी नजरिए को बढ़ाने-बचाने के लिए बनाई गई फिल्में ऐसे ही विवाद का विषय बनी हैं। उनको पत्थरबाजी करके कई जगह रोका भी गया। एक पक्ष कहता रहा कि यह खास तरह के ‘नेरेटिव’ को बेचने के लिए बनाई गई है जबकि दूसरे के निर्माता कहते रहे कि हमारी फिल्म कलात्मक फिल्म है, जिसे नामी निर्देशक ने बनाया है।
एक्टर भी बड़े कलाकार हैं। इसलिए यह कला फिल्म है, प्रचार फिल्म नहीं। इसी क्रम में एक ‘रेडियो ब्रॉडकास्टर’ द्वारा प्रायोजित मोदी संदर्भी फिल्म का भी विरोध किया गया। जेएनयू में जब उसे दिखाए जाने का अवसर आया तो उसके विरोध में जम कर प्रदर्शन हुए और इसी तरह के विरोध दूसरी जगह भी हुए। तब भी उस फिल्म के ‘पक्षधर’ कहते रहे कि यह ‘सत्य’ पर आधारित फिल्म है जबकि विरोधियों ने इसे मोदी के अंधविरोध में प्रचार फिल्म बताया, मोदी को बदनाम करने की साजिश बताया जबकि अदालतें मोदी को किसी भी प्रकार के ‘आरोप’ से मुक्त बता चुकी हैं। अदालत के फैसले के बाद भी अगर कोई उसी तरह के आरोपों को ‘सच’ बताता चलता है तो जरूर उसके इरादे सिर्फ राजनीतिक बदला लेने के लिए हैं.. इसीलिए पक्षधरों ने कहा कि यह मोदी के खिलाफ एक बड़ी साजिश का हिस्सा है..।
इन दिनों जब भी ऐसे अवसर आते हैं, और इस दौर में कुछ ज्यादा आ रहे हैं, तो ऐसी हर फिल्म विवाद का विषय बन जाती है, उसके ‘पक्ष’ और ‘विपक्ष’ बन जाते हैं, और ऐसी फिल्म या किताब, जब जहां रिलीज होती है, उसके विरोधी और अनुरोधी अपने-अपने मोरचे जमा लेते हैं, और अपने-अपने पक्ष को सही ठहराने लगते हैं। इसका कारण यह है कि हम एक ‘नये ध्रुवीकृत समाज’ में रह रहे हैं, जहां हर कला, कविता, कहानी, सोच, विचार, फिल्म, खबर, ‘फ्रेम’, डाक्यूमेंट्री, ब्रॉडकास्ट, दो विचारों के बीच विवाद का विषय बन सकता है, और बन जाता है। ऐसा एक नहीं रोज के कई उदाहरण हैं। सबके अपने-अपने पक्ष हैं। सब उसी के हिसाब से दूसरे को देखते हैं।
आज की सारी आलोचना एक राजनीतिक आलोचना है, जो न कला समझती है, न कलात्मकता की तमीज उसे है। यह ‘पावर की राजनीति’ है जो हर चीज को पावर के हिसाब से देखती है। ‘यह मेरी पावर को बढ़ाने वाली है, कि घटाने वाली है?’ सब इससे तय होता है। जो चीज किसी को उसकी पावर घटाने वाली महसूस होती है, वह उसके खिलाफ तुरंत तलवार लेकर खड़ा हो जाता है। एक ओर हिन्दुत्ववादी विचार है, जो राष्ट्र और उसके वाद को सर्वोपरि समझता है, और ऐसी कोई भी चीज जो हिन्दू समाज या हिन्दुत्व को कमजोर करे, उसे राष्ट्र को कमजोर करती नजर आती है, और यही मानक तय करता है कि कौन-सी चीज ठीक है, कौन-सी नहीं। दूसरा विचार वह है जो नेहरूवादी है, जिसके अुनसार भारत ऐसी धर्मशाला है जिसमें सब मुसाफिर हैं। उसका कोई ‘एक मालिक’ नहीं है, कोई ‘ओनर’ नहीं है जबकि राष्ट्रवादी विचार अपने को राष्ट्र का ‘ओनर’ समझता है। इसलिए जो भी इसके विरोध में होता है, विरोध का लक्ष्य बनता है जबकि नेहरूवादी विचार में हिन्दुत्व का विचार खतरनाक है, भारत को तोड़ देने वाला है। इस तरह आज सब अपने-अपने भारत के लिए लड़ रहे है, किसका भारत आगे बढ़े, सारा झगड़ा इसी बात का है।
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