कैसे खत्म होगा नक्सलवाद का नासूर?

Last Updated 10 Apr 2021 12:50:39 AM IST

छत्तीसगढ़ में लाल आतंक की नई वारदात ने पुराने सवालों को दोबारा जीवित कर दिया है। नक्सलियों ने हमारे 22 वीर जवानों को जिस पाशविक तरीके से मौत के घाट उतारा, उसके बाद देश भर से ‘आंख के बदले आंख’ वाले इंसाफ की मांग उठ रही है। ‘गोली’ के बदले में देश के गृह मंत्री से लेकर राज्य के मुख्यमंत्री की निर्णायक लड़ाई वाली बोली भी देश के गुस्से को ही अभिव्यक्त कर रही है।


कैसे खत्म होगा नक्सलवाद का नासूर?

लेकिन परेशानी की बात यह है कि न तो नक्सल बेल्ट में यह पहली गोली चली है, न ही इसे लेकर बोली जा रही ‘बोली’ देश पहली बार सुन रहा है। हर वारदात के बाद ‘शहादत के बेकार न जाने’ की कसम अब रटी-रटाई रस्म हो गई है, और हकीकत यही है कि नक्सलवाद पर अंतिम प्रहार बीते कई दशकों का अधूरा इंतजार बन कर रह गया है।

तो आज हमारे सामने ऐसे हालात क्यों बन गए हैं? क्यों नक्सलियों के गिने-चुने राज्यों तक सिमट जाने के दावे के बावजूद उनका संपूर्ण सफाया संभव नहीं हो पा रहा? क्यों जिस नक्सलवाद को बार-बार आखिरी सांस गिनते हुए बताया जाता है, उसकी गिनती पूरी नहीं हो पा रही? बीजापुर में सुरक्षा बलों पर हमले की जांच से जो भी नतीजा निकले, एक बात तो साफ है कि नक्सलियों के हौसले बिल्कुल भी कमजोर नहीं हुए हैं। हमले की वजह को लेकर यह दावा पुरजोर तरीके से किया जा रहा है कि सुरक्षा बलों की तगड़ी घेरेबंदी से परेशान होकर नक्सली यह कदम उठाने के लिए मजबूर हुए। इस दावे का आशय तो देश को यह राहत पहुंचाना लगता है कि अब नक्सलियों के पास बचने की ज्यादा गुंजाइश नहीं बची है, लेकिन इस दावे का एक विश्लेषण बड़ी चिंता का विषय भी है। सोचिए, अगर मजबूरी का प्रतिघात इतना खौफनाक है, तो योजनाबद्ध घात का अंजाम क्या हो सकता था? अब सुरक्षा बलों को और ज्यादा सतर्क हो जाने की जरूरत है, क्योंकि नक्सलियों का ट्रैक रिकॉर्ड बताता है कि इस लड़ाई में मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल करने के लिए न केवल ऐसे हर वार का पलटवार जरूरी होता है, बल्कि बेहद जल्दी भी होता है।

नक्सली हिंसा में क्रूरता की हद
हमले से जुड़ी जो तस्वीरें सामने आई हैं, वो बताती हैं कि इस लड़ाई में हिंसा का स्तर क्रूरता की  किस हद को पार कर चुका है। शहीद जवानों की पार्थिव देह को उठाने से पहले उसे रस्सी से बांध कर पलटने की प्रक्रिया का सच जानकर किसी भी सच्चे देशभक्त का खून खौल सकता है। सुरक्षा बलों को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाने के लिए नक्सली शहीद जवानों के शवों के नीचे बम रख देते हैं, ताकि जो कोई भी उन शवों को उठाने जाए, वो भी ब्लास्ट में मारा जाए। यह जघन्यता की पराकाष्ठा है और इसकी जितनी निंदा हो, वो कम है और शायद इसीलिए घटना के एक सप्ताह बीत जाने के बाद भी कोई काउंटर अटैक नहीं होने से आम जनमानस में गुस्से का उबाल भी है। बस्तर में सेना उतारने के सही समय की ताकीद के साथ ही बीजापुर में ‘बालाकोट’ जैसे बदले को दोहराने की मांग हो रही है।

लेकिन क्या यह सब इतना सहज है, सरल है, संभव है और इस सबसे ऊपर कितना व्यावहारिक है? बेशक यह विरोधाभास ही है कि देश के दुश्मनों जैसा बर्ताव करने के बावजूद नक्सलियों से निपटने की योजनाएं पाकिस्तान जैसे दुश्मन देश की तर्ज पर नहीं, बल्कि हमारे अपने एक हिस्से के तौर पर बनाई जाती हैं। मजबूरी में ही सही, लेकिन नक्सलियों के खिलाफ किसी भी कड़ी कार्रवाई से पहले मानवाधिकार के पहलू पर प्राथमिकता से ध्यान दिया जाता है। फिर बालाकोट और बस्तर की चुनौतियों में जमीन-आसमान का अंतर है। नक्सली नेतृत्व को न केवल इस इलाके की बहुत अच्छी समझ है, बल्कि मजबूत खुफिया नेटवर्क के साथ ही स्थानीय लोगों पर उनका खासा असर भी है। बस्तर को लेकर यह बात भी मशहूर है कि वहां के जंगलों में नक्सलियों को देखने के लिए एक भी आंख मौजूद नहीं है, लेकिन नक्सलियों के खिलाफ उठ रहे हर कदम को देखने के लिए हजारों आंखें खुली रहती हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि जब-जब बस्तर के जंगल रणभूमि बने हैं, खून की लड़ाई में लाल आतंक का पलड़ा भारी रहा है। इसलिए समस्या को सुलझाने के लिए बस्तर में सेना उतारने या नक्सलियों के ठिकानों पर एयर स्ट्राइक के बजाय व्यावहारिक राजनीतिक इच्छाशक्ति का विकल्प शायद ज्यादा कारगर साबित हो सकता है।

आंध्र प्रदेश का सफल मॉडल
अविभाजित आंध्र प्रदेश ने ऐसा करके दिखाया भी है। साल 2004 में मुख्यमंत्री रहते हुए वाईएसआर रेड्डी ने नक्सलियों की मुख्यधारा में सफलतापूर्वक वापसी करवा कर इस समस्या को हल किया था। इसके लिए वाईएसआर ने चार सूत्रों पर काम किया। पहले बातचीत का माहौल तैयार करने के लिए नक्सलियों के साथ युद्ध विराम किया, फिर नक्सलियों का भरोसा जीतने के लिए उनके खिलाफ चल रहे मुकदमे वापस लिए। इसके कारण तत्कालीन नक्सली संगठन पीपुल्स वॉर ग्रुप से औपचारिक बातचीत की शुरु आत हुई, जिसके बाद वाईएसआर ने चौथे और सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र पर काम करते हुए सामाजिक न्याय और बुनियादी ढांचे के विकास से जुड़ी योजनाओं को रफ्तार दी। हथियार उठाने के लिए नक्सली अक्सर इन्हीं दोनों चीजों की कमी को जिम्मेदार ठहराते हैं। वाईएसआर की इस रणनीति का असर यह हुआ कि जो गुट बातचीत से दूर रहे, उनके खिलाफ कार्रवाई कर उन्हें धीरे-धीरे नेतृत्वविहीन कर दिया गया। अलग-थलग पड़ने पर बचे हुए नक्सली या तो दूसरे गुटों में शामिल हो गए या फिर दूसरे राज्यों में पलायन कर गए।

साल 2010 में इसी आंध्र मॉडल को अपना कर पश्चिम बंगाल ने झारखंड से सटे क्षेत्रों को नक्सल-मुक्त करने में कामयाबी हासिल की थी। बस्तर के नक्सल इलाकों में आधे दशक से ज्यादा का वक्त गुजार चुके सीआरपीएफ के कमांडेंट राकेश कुमार सिंह की किताब ‘नक्सलवाद-अनकहा सच’ में भी भय, भूख और भ्रष्टाचार के निदान को नक्सलवाद के खात्मे का फॉर्मूला बताया गया है। वैसे चार साल पहले केंद्र सरकार ने भी नक्सलवाद से निपटने के लिए ‘ऑपरेशन समाधान’ शुरू किया था। इसमें सक्षम नेतृत्व, आक्रामक रणनीति, योजनाबद्ध प्रशिक्षण, चुस्त खुफिया तंत्र और नक्सलियों की सप्लाई चेन तोड़ने की प्लानिंग को आधार बनाया गया है। लेकिन ताजा घटनाक्रम देख कर लगता नहीं कि यह ऑपरेशन समस्या के समाधान में कोई खास योगदान दे पाया है।

हमले का एक और पक्ष
वैसे इस हमले का एक पक्ष ऐसा भी है जिस पर और सोचने-विचारने की जरूरत है। शुरु आती जांच से पता चला है कि हमारे जवान दरअसल नक्सलियों के बिछाए जाल में फंस गए, जिसकी कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। घटना के सात दिन गुजर जाने के बाद भी जो चर्चा हो रही है, उससे लगता है कि जवान ही नहीं, हमारा समूचा तंत्र नक्सलियों के मनोवैज्ञानिक जाल में फंस गया है। चर्चा का पूरा फोकस हमले के मास्टरमाइंड हिडमा पर केंद्रित दिख रहा है। ऐसा करते हुए हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि तंत्र को चुनौती देने के लिए नक्सली जिस तरह की लड़ाई लड़ रहे हैं, उसमें लीडर की भूमिका बड़ी केंद्रीय होती है, सब कुछ उसके आसपास घूमता है, उसे नायक का दर्जा मिलता है। शासन तंत्र में उसे मिटाने की कोशिशें जितनी बड़ी होती जाती हैं, समूह में उसका कद उतना ही ऊंचा होता जाता है। हिडमा पर पहले से ही 50 लाख का इनाम है, अब पता चल रहा है कि यह ऑपरेशन भी उसी की तलाश में चल रहा था, जिसमें सीआरपीएफ के दो हजार जवानों को बस्तर के जंगलों में उतार दिया गया था। ऐसे में इस सवाल का जवाब ढूंढ़ना भी जरूरी है कि अकेले हिडमा पर फोकस करना क्या कोई रणनीतिक भूल थी, क्या हमारा सुरक्षा तंत्र नक्सलियों के बिछाए मनोवैज्ञानिक जाल में फंस गया?

बहरहाल, ऐसे तमाम सवाल हैं, जिनके जवाब मिलना जरूरी है। इस सब के बीच अगवा जवान राकेर सिंह की रिहाई अवश्य ही राहत की बात है, लेकिन सवाल फिर भी बरकरार है कि नक्सलवाद का नासूर कब खत्म होगा? कब तक हमारे जवान इसी तरह जान की कुर्बानी देते रहेंगे?


उपेन्द्र राय


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