अबकी बार बंगाल में किसका खेला होबे?
चुनाव की तारीख नजदीक आने के साथ ही बंगाल का रण तीखा और आक्रामक होता जा रहा है।
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बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस आक्रमण के दो ऐसे केंद्र बने हुए हैं, जो जीत को अपने पाले में लाने की जी-तोड़ कोशिशों में जुटे हैं। दोनों खेमों से हो रहे तुर्की-ब-तुर्की हमलों ने लड़ाई के अंदाज और चुनाव के मिजाज को लेकर भ्रम की हर स्थिति को साफ कर दिया है। और अब जबकि 27 मार्च को होने वाले पहले चरण के मतदान की उलटी गिनती दिनों के बजाय घंटों में होने लगी है, तो जमीन से मिल रहे संकेतों को समझना पहले की तुलना में ज्यादा सार्थक और यकीनन ज्यादा दिलचस्प प्रतीत होने लगा है।
चुनावों की आम परिपाटी की ही तरह प्रचार के शुरुआती दौर में एक-दूसरे को तौलने के बाद बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस ने कुशल चुनावी खिलाड़ियों की तरह अपनी-अपनी राह पकड़ने में ज्यादा वक्त नहीं गंवाया। ममता अपने भरोसेमंद ‘एम’ फैक्टर यानी मुस्लिम वोटरों की तरफ झुकी, वहीं बीजेपी ने लोक सभा चुनाव की लकीर को लंबा करते हुए राम कार्ड खेल दिया। ममता इस बात से निश्चिंत थीं कि जय श्रीराम के जिस नारे को बीजेपी बंगाल में परिवर्तन का प्रतीक बता रही है, उसे वो अदालत की चौखट खटखटाकर बंदिशों के पिंजरे में कैद करवाने में कामयाब हो जाएंगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। जब सुप्रीम कोर्ट ने जय श्रीराम के नारे के इस्तेमाल पर रोक लगाने से इनकार कर दिया, तो जय श्रीराम का विरोध करने वाली ममता अपनी रणनीति को बदलने के लिए मजबूर हो गई। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मौजूदगी में लगे जय श्रीराम के नारे पर कार्यक्रम में बोलने से इनकार करने वाली ममता ने संभलकर सॉफ्ट हिंदुत्व की ओर कदम बढ़ाया, जय श्रीराम के नारे के सार्वजनिक विरोध से परहेज बरता और खुद को हिंदू साबित करने के फेर में मंच पर चंडी पाठ तक कर डाला। पहले कार्यकाल में इमामों को ढाई हजार का मासिक भत्ता देकर विवादों में घिरी ममता ने अपने दूसरे कार्यकाल में आठ हजार से ज्यादा गरीब ब्राह्मण पुजारियों को एक हजार रु पये मासिक भत्ता और मुफ्त आवास देकर संतुलन साधने की शुरु आत काफी पहले ही कर दी थी। सैंतीस हजार दुर्गा पूजा समितियों को 50-50 हजार रु पये का अनुदान देने के साथ ही उनका बिजली बिल आधा करने का फैसला भी उस नुकसान की भरपाई से ही प्रेरित था, जो तृणमूल को हिंदू वोट छिटकने की वजह से उठाना पड़ा था। हिंदू मतदाताओं को साधने के लिए ममता ने इस बार मुस्लिम प्रत्याशियों की संख्या भी घटा दी है। यह सारी कसरत बीजेपी के मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप के जवाब में हो रही है, लेकिन क्या इस सबसे सत्ता में हैट्रिक बनाने का ममता का लक्ष्य पूरा हो पाएगा या लोक सभा में बीजेपी को 18 सीटों पर मिली हैरतअंगेज जीत ने ममता के गणित को किसी गफलत में उलझा दिया है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर दूसरी ऐसी कौन-सी वजह है, जिसने ममता को मुस्लिम प्रत्याशियों की संख्या के मामले में दस साल पीछे लौटने के लिए मजबूर कर दिया है? साल 2011 के चुनाव में ममता ने 38 मुस्लिम प्रत्याशियों पर दांव लगाया था, जो इस बार के 42 उम्मीदवारों की संख्या के आस-पास बैठता है, जबकि साल 2016 के पिछले चुनाव में ममता ने 57 मुस्लिम प्रत्याशियों पर भरोसा जताया था।
इस ‘कटौती’ की दो-तीन वजह हो सकती है। बंगाल की आबादी में 70 फीसद हिंदू हैं और 30 फीसद मुस्लिम। देश में असम के बाद सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी पश्चिम बंगाल में ही रहती है। ममता को भरोसा है कि यह वोट बैंक उनके पक्ष में लामबंद है और इसमें सेंधमारी का कोई खतरा नहीं है। फुरफुरा शरीफ दरगाह के पीरजादा सिद्दीकी और एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी की ओर से भी नहीं। दरअसल इन दोनों नेताओं की पृष्ठभूमि बताती है कि ये बंगाल में ममता को सिर्फ टेंशन दे सकते हैं, मुस्लिम वोटरों का अटेंशन नहीं ले सकते। ओवैसी की बात करें, तो भाषा से लेकर जानकारी तक के स्तर तक उनका बंगाल से ज्यादा कनेक्ट नहीं है और इस नाते वह ममता के ‘बाहरी’ वाले खांचे में बीजेपी से ज्यादा फिट बैठते हैं। पीरजादा सिद्दीकी बंगाली मुसलमान जरूर हैं, लेकिन हुगली के बाहर उनका भी ज्यादा दखल नहीं है।
वैसे भी ममता बनर्जी को इन दोनों से ज्यादा चिंता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता की हो सकती है, जिनके बूते बीजेपी ने लोक सभा चुनाव में बंगाल में नया इतिहास रचा। जिन 18 सीटों पर बीजेपी ने जीत दर्ज की, उनमें से सात मुस्लिम बहुल सीटें हैं। यह केवल मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक जैसे बर्बर कानूनों से मुक्ति दिलाने के मोदी सरकार के फैसले की वजह से नहीं हुआ, केवल लेफ्ट के वोट बैंक खिसकने की वजह से भी नहीं हुआ, बल्कि इन दोनों के जोड़ से संभव हो पाया, लेकिन इस बार चुनाव विधानसभा का है और दोनों मामलों में हालात पलट गए हैं। बीजेपी के पास राज्य स्तर पर ऐसा नेतृत्व नहीं है, जो प्रधानमंत्री के करिश्मे का थोड़ा भी अंश दोहरा सके और शायद यही वजह है कि लेफ्ट से छिटका वोट बैंक दोबारा उसके साथ जुड़ गया दिख रहा है। इसलिए अगर चिंताएं ममता के लिए हैं, तो बीजेपी की चुनौतियां भी कम नहीं हैं। बाहर से आए नेताओं की ‘पैराशूट एंट्री’ के बाद पार्टी का अनुशासन कई मौकों पर टूटता दिखा है। टिकट वितरण के बाद बीजेपी कार्यालय में दिखे दृश्य आमतौर पर बीजेपी में नहीं देखे जाते। बीजेपी के लिए चिंता का एक और विषय यह भी होना चाहिए कि राम के नाम पर वोट का विभाजन बंगाल में शायद वैसा न हो, जैसा बाकी देश में होता है। बंगाल के गैर-बांग्लाभाषी हिंदुओं में तो राम की अपील दिखती है, लेकिन जो हिंदू बांग्ला बोलते हैं, उनके लिए मां दुर्गा ज्यादा मायने रखती हैं। ऐसे हिंदुओं की संख्या 50 फीसद से ज्यादा है, जबकि बांग्ला नहीं बोलने वाले हिंदू केवल 10 फीसद हैं। बीजेपी और तृणमूल दोनों इस फासले की अहमियत को जानते-समझते हुए भी इसे चुनावी मुद्दा बना रहे हैं, ताकि मतदाताओं का ध्रुवीकरण हो और लेफ्ट-कांग्रेस को एक बार फिर अपनी पकड़ मजबूत करने का मौका नहीं मिल सके और मुकाबला तृणमूल-बीजेपी के बीच ही सिमट कर रह जाए।
साफ तौर पर यह स्ट्रैटेजी दो-धारी तलवार जैसी है, जिसमें फायदा है तो नुकसान भी है, लेकिन जीत के लिए दोनों दल जिस तरह यह खतरा मोल लेने के लिए भी तैयार दिख रहे हैं, उसने इस चुनाव को और भी दिलचस्प बना दिया है। दो मई को नतीजे वाले दिन देखने की बात यह होगी कि बंगाल की जनता प्रधानमंत्री मोदी की मंशा के अनुरूप ममता बनर्जी के बार-बार के फाउल पर उन्हें राम कार्ड दिखाकर सत्ता से बाहर करती है, या वो ममता बनर्जी के ‘खेला होबे’ के उद्घोष के साथ सुर मिलाकर उसे जयघोष में बदलने का काम करती है।
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