कितनी बदली दुनिया! कितना बदला भारत!!

Last Updated 20 Mar 2021 02:18:00 AM IST

बीता एक साल दुनिया के लिए सबसे बड़ी चुनौती का साल था, तो यही साल भारत के लिए विश्वगुरु बनने की शुरु आत का साल भी कहा जाएगा। बेशक, आलोचक ‘दुनिया गोल है’ की तर्ज पर दावा कर सकते हैं कि पूरे साल कोरोना से लड़ने के बाद आज घूम-फिरकर हम फिर उसी जगह पर आकर खड़े हुए हो गए हैं।


कितनी बदली दुनिया! कितना बदला भारत!!

लेकिन आलोचना के लिए मजबूर आलोचक उस बड़ी तस्वीर, जिसे अंग्रेजी में ‘बिग पिक्चर’ कहा जाता है, को खुद गोल कर जाते हैं। भले ही आज कोरोना की दूसरी लहर सरकार को परेशान कर रही हो, लेकिन कौन भूल सकता है कि पहली लहर से पार पाकर इसी सरकार ने दुनिया में देश की शान बढ़ाने का काम भी किया है। पहले लॉकडाउन की लक्ष्मण रेखा खींचकर और फिर ‘वानर सेना’ की तरह कोरोना वॉरियर्स एवं देश की जनता के संपूर्ण सहयोग से सरकार ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में वैक्सीन का ‘रामबाण’ चलाते हुए कोरोना रूपी रावण का मान-मर्दन करने में कामयाबी हासिल की। दसों दिशाओं और सातों महाद्वीपों में इस कामयाबी की चर्चा हुई तो जाहिर है कि इसे छोटा करने की कोशिश सूरज को दीया दिखाने जैसा ‘बचपना’ ही कहा जाएगा।  

अचानक आई आपदा के सामने थे हम

इसके लिए कोई लंबी-चौड़ी दलील देने की भी जरूरत नहीं, केवल यह जानना काफी होगा कि तमाम आशंकाओं और दुष्प्रचार के बावजूद कोरोना प्रभावितों का आंकड़ा एक करोड़ बीस लाख को भी पार नहीं कर पाया है, जो हमारी सवा अरब से भी ज्यादा की आबादी का एक फीसद भी नहीं बैठता। हालांकि कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि हम अचानक आई आपदा के लिए जरा भी तैयार नहीं थे। कोरोना हमारी चौखट पर आकर खड़ा हो गया, तब जाकर हमने अपनी स्वास्थ्य सेवाओं की उस हकीकत को मंजूर किया, जिसके बारे में हम जानते तो बहुत कुछ थे, लेकिन उसकी व्यापकता और गुणवत्ता पर आसमानी दावों से ज्यादा हम कोई खास तीर नहीं मार पाए थे। कोरोना को इस मामले में धन्यवाद देना चाहिए कि उसने स्वास्थ्य को राष्ट्रीय विमर्श का केंद्र बनाया है। बेशक, आदर्श स्थिति अभी भी कल्पना का ही विषय है, लेकिन हम कम-से-कम इतना तो कह ही सकते हैं कि पिछले एक साल में हुए बदलावों से इस मोर्चे पर हम अब जाकर वियतनाम और अल्जीरिया जैसे देशों से बेहतर हो पाए हैं। इसका सारा दोष पिछली सरकारों पर मढ़ने का कोई फायदा नहीं, क्योंकि ऐसा नहीं है कि उनके सत्ता में रहते कोई काम नहीं हुआ, हां उन कामों का अंजाम क्या रहा, इस पर जरूर विचार किया जा सकता है। कोरोना की पहली दस्तक के समय देश में केवल सात लाख सक्रिय डॉक्टर थे, नसरे की संख्या केवल बीस लाख थी। अमेरिका के सेंटर फॉर डिसीज डायनेमिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी (सीडीडीईपी) के इन आंकड़ों को जमीन पर मिल रही सुविधा या कहें कि असुविधा के पैमाने में बदलें तो पता चलता है कि एक साल पहले तक देश में 10,189 लोगों पर केवल एक सरकारी डॉक्टर उपलब्ध था, जबकि वि स्वास्थ्य संगठन एक हजार लोगों पर एक डॉक्टर की सिफारिश करता है। आइसोलेशन बेड, टेस्टिंग लैब, पीपीई किट जैसी विशिष्ट सुविधाएं तो दूर की कौड़ी थीं। कोरोना के शुरु आती दौर में इनकी कमी का खमियाजा देश को अपने सैकड़ों स्वास्थ्यकर्मिंयों की जान गंवाकर चुकाना पड़ा। लगभग इतनी ही डरावनी जानकारी यह थी कि भारत में एंटीबॉयोटिक दवाइयों को उचित तरीके से देने वाले ट्रेंड स्टाफ तक की भारी कमी थी। यही वजह है कि जीवन बचाने वाली दवाइयां उपलब्ध होने के बावजूद  मरीजों को नहीं मिल पाती थीं। आज स्थिति यह है कि भारत कोरोना की वैक्सीन उपलब्ध करवा कर लगभग आधी दुनिया को जीवनदान देने का काम कर रहा है। वि स्वास्थ्य संगठन से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक भारत के नेतृत्व को सराह रहा है। हाल में क्वाड की बैठक में तो दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति अमेरिका की मौजूदगी के बावजूद परोक्ष रूप में भारत को ही कोरोना से लड़ाई का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। यहां तक कि अमेरिका खुद अपनी जरूरत की वैक्सीन भारत में बनवाने के लिए तैयार हुआ है। एक देश के तौर पर इस उपलब्धि को कमतर करके कैसे आंका जा सकता है। अपने विस्तारवाद से जो चीन पड़ोसी देशों के लिए सिरदर्द बना है, उसे चित्त करने में पीएम मोदी की वैक्सीन डिप्लोमेसी की कामयाबी से कैसे इनकार किया जा सकता है? वैश्विक पटल पर जिम्मेदार राष्ट्र के तौर पर पहचान और संपुष्ट होने के आत्मगौरव को कैसे झुठलाया जा सकता है?

गौरव गान व्यापक जमावट, जरूरी कसावट का नतीजा

दुनिया भर में हो रहे इस गौरव गान की बुनियाद दरअसल घरेलू मोर्चे पर पिछले एक साल में हुई व्यापक जमावट और जरूरी कसावट का नतीजा है। इस साल के बजट का ही उदाहरण लें, तो 137 फीसद बढ़ोतरी के साथ स्वास्थ्य क्षेत्र में बजटीय आवंटन अब दो फीसद से ऊपर आ गया है। सरकार ने ‘पीएम आत्मनिर्भर स्वस्थ भारत’ नाम की नई योजना के माध्यम से स्वास्थ्य क्षेत्र में आधारभूत ढांचे के नव-निर्माण पर अगले छह साल में 180 करोड़ रु पये निवेश करने का फैसला किया है। संक्रामक बीमारियों का पता लगाने और रोक-थाम के लिए देश में सर्विलांस और टेस्ट की व्यवस्था चौकस की जा रही है। ऑनलाइन पोर्टल अलग-अलग इलाकों में बीमारियों पर नजर रख रहे हैं, वहीं बीमारियों की टेस्टिंग, रिपोर्टिग और मॉनिटिरंग के लिए ब्लॉक स्तर तक लैब खोली जा रही है।

देश को दोबारा डरा रही कोरोना की नई लहर के बीच चल रही तमाम कवायद प्रधानमंत्री के उस 3-टी मंत्र के अनुरूप दिखती है, जो उन्होंने इस सप्ताह की शुरु आत में हुई बैठक में राज्यों के मुख्यमंत्रियों को दिए हैं। 3-टी यानी टेस्टिंग, ट्रैकिंग और ट्रीटमेंट, जिसके तहत टेस्टिंग एवं टीकाकरण में और तेजी लाने, वैक्सीन की बर्बादी से बचने और पाबंदियां खुद तय करने की सलाह शामिल हैं। इस मिशन की कामयाबी निर्धारित करने में उस समाज की सहभागिता निर्णायक रहने वाली है, जिसने कोरोना से लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सा ही नहीं लिया है, बल्कि अपने जीवन का अहम हिस्सा दांव पर भी लगाया है। इनमें से कइयों ने सगे-संबंधियों को गंवाकर खून के रिश्तों में आई स्थायी दूरी को सहा है, तो प्रवासी श्रमिकों की तस्वीरों में इंसानियत की दर्दनाक मजबूरी को भी देखा है। हालांकि सरकार ने इनकी अवस्था और देश की अर्थव्यवस्था, दोनों को पटरी पर लाने के लिए अपना खजाना खोला है, लेकिन कोरोना की दूसरी लहर बेकाबू हुई तो इससे सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा। इसी वजह से लगता है कि लॉकडाउन के दौरान गई नौकरियों की पूरी तरह रिकवरी और रोजगार के पुराने हालात बहाल होने में भी अभी काफी वक्त लगने वाला है।

इसलिए भी प्रधानमंत्री के दवाई और कड़ाई वाले फॉर्मूले को जीवन मंत्र की तरह आत्मसात किए जाने की जरूरत है, खासकर उन राज्यों के लिए जहां कोरोना न सिर्फ  दोबारा सिर उठा रहा है, बल्कि तेजी से हाथ-पैर भी पसार रहा है। टीकाकरण पर अफवाह फैला कर भ्रम का वातावरण बना रहे तत्वों के लिए भी यह राष्ट्रहित में मंथन का अवसर है। इनमें बढ़ी संख्या ऐसे लोगों की भी हो सकती है, जो एक साल पहले कोरोना से लड़ने में थाली बजाने, दीये जलाने और कोरोना वॉरियर्स पर फूल बरसाने जैसे परंपरागत प्रतीकों की प्रासंगिकता पर सवाल उठा रहे थे। साल भर कोरोना से देश की समवेत लड़ाई और इस लड़ाई के सकारात्मक परिणामों ने इन जैसे तमाम नकारात्मक सवालों को गलत साबित किया है। उम्मीद है कि नई परिस्थितियों में कोरोना के साथ ही अफवाहों और सवालों की नई लहर को जवाब देने का सफल सिलसिला यूं ही आगे भी जारी रहने वाला है।                    

उपेन्द्र राय


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