निरंतरता से चलें समाज-सुधार कार्यक्रम
हालांकि अधिक ध्यान आर्थिक विकास की ओर किया जाता है, पर इसके साथ जरूरी है कि समाज सुधार की एक समग्र सोच बने और इस पर आधारित समाज-सुधार के प्रयास भी निरंतरता से चलते रहें।
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समाज की सबसे बुनियादी इकाई परिवार है, और अच्छे तथा प्रगाढ़ पारिवारिक संबंध, सुख-दुख में साथ रहने और एकता के संबंध बने रहने चाहिए। यह विभिन्न लोगों की अपनी राय है कि वे संयुक्त परिवार में रहते हैं या अलग पर चाहे जैसे भी रहें, आपसी संबंध अच्छे बने रहने चाहिए। बच्चों को अच्छे संस्कार देने के लिए परिवार संभवत: स्कूल से भी अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
इस जिम्मेदारी के प्रति परिवारों को सचेत रहना चाहिए और साथ ही ध्यान में रखना चाहिए कि अच्छे संस्कार डांट- डपट से नहीं, प्यार के माहौल में बेहतर ढंग से दिए जाते हैं। महिलाओं का सम्मान हर परिवार में होना चाहिए। इसके बिना कोई परिवार आदर्श परिवार नहीं कहला सकता है। उनके प्रति यह दृष्टिकोण होना चाहिए कि गरिमामय और मर्यादा भरे माहौल में उन्हें सब तरह की बराबरी और स्वतंत्रता मिले ताकि वे अपनी क्षमताओं का पूर्ण विकास कर सकें। परिवार की बेहतरी और व्यापक जिम्मेदारी का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि परिवार के जो सदस्य समाज की व्यापक भलाई की जिम्मेदारियों के लिए कुछ अलग राह अपनाना चाहते हैं, उन्हें परिवार का समर्थन-सहयोग मिले। आदर्श परिवार वह नहीं है, जो केवल धन एकत्र करता है, बल्कि वह है जो व्यापक सामाजिक भलाई के कायरे से जुड़ता और इनके संस्कार देता है। अच्छे पारिवारिक संबंधों के साथ पड़ोस से अच्छे संबंधों का भी प्रयास होना चाहिए।
समाज-सुधार का दूसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि सभी तरह के नशे और र्दुव्यसनों जुए-अश्लीलता के विरुद्ध अभियान निरंतरता से चलना चाहिए। नशीले पदाथरे के कारण प्रति वर्ष विश्व में 110 लाख से अधिक मौतें होती हैं। इन नशों के कारण जिन लोगों का जीवन तबाह हुआ है, उनकी संख्या तो बहुत अधिक है और विश्व स्तर पर 80 करोड़ के आसपास है। एक तरह का नशा कम हो पर दूसरा बढ़ जाए तो भी कठिनाई बनी रहती है। कुछ कानूनी कार्रवाई हो जाए, पर आदत फिर भी न छूटे, तो भी कठिनाई बनी रहती है। अत: जरूरत इस बात की है कि निरंतरता से हर तरह के नशे को कम करने की समस्या को न्यूनतम करने के प्रयास चलते रहें और इसके लिए गांवों और बस्तियों में महिलाओं के नेतृत्व में नशा विरोधी समितियों का गठन होना चाहिए। अश्लीलता के प्रसार और अन्य हानिकारक व्यसनों को रोकने के लिए भी निरंतरता से प्रयास जरूरी है।
तीसरा महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि समाज में सभी तरह के भेदभाव को समाप्त किया जाए। जाति, धर्म, लिंग, रंग, क्षेत्र किसी भी आधार पर या ऐसी किसी भी पहचान के आधार पर न तो किसी से कोई भेदभाव होना चाहिए और न ही किसी का अपमान होना चाहिए। सभी लोगों की समानता को दिल की गहराई से स्वीकार कर सभी के साथ सम्मानजनक और गरिमामय व्यवहार करेंगे तो हमारा समाज बहुत बेहतर समाज बन सकेगा। समाज में ऐसी व्यापक सोच होनी चाहिए कि अपने से कमजोर आर्थिक-सामाजिक स्थिति के लोगों से व्यवहार सहायता का हो, शोषण का नहीं। इस समानता के आधार पर समाज में व्यापक एकता और सहयोग की स्थिति स्थापित होनी चाहिए। यदि ऐसा हो सके तो हमारे समाज और देश की इतनी उत्साहवर्धक प्रगति हो सकेगी कि दुनिया भर में सराही जाएगी। जिस समाज में समानता आधारित एकता और सहयोग होगा वह समाज सबके मिले-जुले प्रयास से प्रगति की किसी भी बुलंदी को छू सकता है, उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है।
वैसे तो परस्पर एकता और सहयोग से सभी तरह के कार्य आगे बढ़ेंगे पर पर्यावरण रक्षा और आसपास की स्वच्छता को प्राथमिकता का केंद्र बनाना होगा। इसके अतिरिक्त आपसी एकता और सहयोग से ऐसी कई समस्याओं को दूर किया जा सकता है, जिनके कारण बहुत से परिवार परेशान हैं पर जिनका समाधान चंद परिवारों के स्तर पर न कर व्यापक सहयोग की आवश्यकता है। इस तरह दहेज समस्या, कुछ अवसरों पर फिजूलखर्ची आदि को दूर किया जा सकता है, जिनके कारण बहुत से लोग कर्जग्रस्त और तनावग्रस्त हो रहे हैं। समाज-सुधार की समग्र समझ के आधार पर इसके लिए प्रयास निरंतरता से होने चाहिए और इसके लिए समितियों का गठन होना चाहिए। युवाओं और महिलाओं की इसमें विशेष भूमिका होनी चाहिए।
समाज-सुधार की इस सोच का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि इसमें परंपरा और आधुनिकता का संतुलित मिलन हो।
कुछ लोग परंपरा के प्रति अत्यधिक झुकाव रखते हैं। भूल जाते हैं कि परंपरागत व्यवस्था और सोच में कुछ ऐसी कमजोरियां थीं जिनके कारण देश को पहले ही बहुत भुगतना पड़ा है। दूसरी ओर, कुछ लोग आधुनिकता से इतने आकषिर्त हो जाते हैं कि भूल जाते हैं कि आधुनिकता के कुछ चिंताजनक पक्षों के कारण पश्चिमी देशों के समाज में ऐसी विसंगतियां आ गई हैं जिनके कारण वहां के लोग बहुत चिंतित हैं। अत: सही रास्ता यही होगा कि परंपरा की मजबूतियों और कमजोरियों, दोनों को भली-भांति समझा जाए और इसी तरह आधुनिकता की बुराइयों-अच्छाइयों का भी सही मूल्यांकन किया जाए। केवल परंपरागत व्यवस्था से चिपके रहना उचित नहीं है, तो आधुनिकता की आंधी में इस तरह उड़ जाना भी उचित नहीं है कि हम अपनी बुनियाद को ही खो बैठें। हमें तर्कसंगत दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और इस आधार पर परंपरा और आधुनिकता के संतुलित मिलन से इसे अपनाना चाहिए।
यदि समाज की सबसे बुनियादी इकाई परिवार को ही देखें तो इसमें कोई संदेह नहीं कि संयुक्त परिवार से सामाजिक संबंधों की बुनियाद मजबूत रहती है, और सुख-दुख में अकेले न पड़ने का विश्वास बढ़ता है, असुरक्षा कम होती है। किन्तु यदि संयुक्त परिवार में ऐसी सख्ती या संकीर्णता हो कि इसके कुछ सदस्यों, विशेषकर महिलाओं को अपनी प्रतिभा का विकास ठीक विकसित करने में बाधाएं नजर आएं तो फिर संयुक्त परिवार में समस्याएं भी आती हैं, और इससे सामाजिक प्रगति बाधित भी होती है। इस स्थिति में यदि संयुक्त परिवार में कुछ सुधार कर इसकी कुछ समस्याओं को दूर कर दिया जाए तो संयुक्त परिवार की रक्षा भी हो सकेगी और इसके विभिन्न सदस्य इसमें अधिक संतुष्ट होकर रह भी सकेंगे।
गांव समाज की मजबूती, लोगों का आपसी सहयोग परंपरागत समाज की एक मजबूती है, पर जाति के आधार पर भेदभाव और यहां तक कि छुआछूत की व्यवस्था निश्चय ही परंपरागत ग्रामीण समाज की गंभीर बुराई रही है। यदि जातिगत भेदभाव और छुआछूत की समस्या को समाप्त कर दिया जाए तो परंपरागत ग्रामीण समाज में ऐसा बहुत कुछ है, जिसके आधार पर एकता और सहयोग बढ़ाए जा सकते हैं। इस तरह समय की मांग है कि परंपरागत विचारों और व्यवस्थाओं में जहां भी समकालीन स्थिति के अनुसार और न्यायसंगत मांग के अनुसार सुधारों की जरूरत हो वहां इसमें जरूरी सुधार अवश्य किया जाए। आधुनिकता के जो पक्ष प्रगति के लिए जरूरी हैं, उन्हें भी अपनाया जाए और इस संतुलित चुनाव के आधार पर हमारा समाज प्रगति की राह पर बढ़े।
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