पशुपालन : प्राकृतिक कृषि की बदौलत गोवंश की रक्षा

Last Updated 09 Feb 2025 01:15:32 PM IST

प्राकृतिक खेती को बेहतर गुणवत्ता के खाद्यों के उत्पादन और पर्यावरण की दृष्टि से बहुत उपयोगी माना जा रहा है, और इस आधार पर ही इसके अधिक प्रसार की चर्चा है।


पशुपालन : प्राकृतिक कृषि की बदौलत गोवंश की रक्षा

इसके साथ-साथ प्राकृतिक खेती से एक अन्य महत्त्वपूर्ण लाभ यह भी प्राप्त हो सकता है कि इससे गोवंश की रक्षा की नई और  अधिक संभावनाएं उत्पन्न होती हैं।

प्राकृतिक खेती में खाद के रूप में सबसे अधिक उपयोग गोवंश के गोबर और मूत्र का होता है, विशेषकर गाय के गोबर और मूत्र का। इसके अतिरिक्त फसलों की हानिकारक कीड़ों आदि से रक्षा के लिए भी इस गोबर और मूत्र को अत्यधिक उपयोगी माना गया है। इस महत्त्व को स्वीकार करते हुए अब अनेक गांवों में ऐसे प्राकृतिक कृषि केंद्र भी स्थापित किए जा रहे हैं, जहां गोवंश के गोबर और मूत्र का ही अधिक उपयोग करते हुए खाद और हानिकारक कीड़ों आदि से रक्षा की दवा बनाई जा रही हैं। जैसे-जैसे इसका प्रसार बढ़ेगा, वैसे-वैसे गांववासियों को लगेगा कि गाय यदि दूध देने की स्थिति में नहीं है तो भी उसके गोबर और मूत्र का भी बहुत उपयोग है। \

इस स्थिति में यह संभावना बढ़ेगी कि गोवंश की रक्षा अधिक बड़े पैमाने पर और अधिक निष्ठा के साथ की जाए। यदि गोवंश के गोबर और मूत्र पर आधारित खाद और दवा अधिकांश किसानों को पर्याप्त मात्रा में मिल जाए तो इससे प्राकृतिक खेती का प्रसार कहीं अधिक हो सकेगा, अच्छी गुणवत्ता के स्वास्थ्य के अनुकूल खाद्य बड़ी मात्रा में उपलब्ध हो सकेंगे और साथ में गोवंश की अधिक रक्षा हो सकेगी, उनके लिए गोशालाएं वहीं बड़ी संख्या में स्थापित हो सकेंगी और उन्हें आवारा और बेसहारा घूमने के लिए नहीं छोड़ा जाएगा। आज देश में गोशालाएं चल तो रही हैं पर प्राय: उनकी स्थिति ठीक नहीं है। उन्हें ठीक बजट उपलब्ध हो भी जाए तो अनेक स्थानों पर भ्रष्टाचार के कारण कठिनाइयां आ जाती हैं और गोशाला में रखे पशुओं को ठीक से पोषण नहीं मिल पाता है। कभी-कभी तो यहां रखे गए पशुओं को बहुत कष्ट सहना पड़ता है।

दूसरी ओर, जब गोबर और गोमूत्र का सही उपयोग होगा, वैज्ञानिक ढंग से इसका संग्रहण और सदुपयोग होगा, तो गोशालाओं को इस तरह आय भी प्राप्त हो सकेगी और विभिन्न कुटीर उद्योग भी यहां पनप सकते हैं। इस सब नियोजन में एक विशेष बात का ध्यान रखना है-बैल की रक्षा की जिम्मेदारी को भी समझना है। प्राय: गाय की रक्षा की जिम्मेदारी को समझा जाता है, और गाय के दूध के अधिक स्वास्थ्यवर्धक होने को तो अब बहुत से लोग अधिक मान्यता देने लगे हैं। दूसरी ओर, बैलों की रक्षा की जिम्मेदारी को अभी तक बहुत से लोग स्वीकार नहीं कर रहे हैं। 

अब इसे रेखांकित कर कहना चाहिए कि गोवंश की रक्षा की जिम्मेदारी तब तक पूरी नहीं हो पाएगी जब तक हम गायों के साथ बैलों की भी जिम्मेदारी को नहीं समझते हैं, और उन्हें नहीं संभालते हैं। बैल खेती-किसानी की अमूल्य धरोहर है। सैकड़ों वर्षो से वे भारतीय किसान के सबसे नजदीकी सहयोगी रहे हैं। प्रेमचंद की विख्यात कहानी ‘दो बैलों की कथा’ हो या इसी पर आधारित फिल्म ‘हीरा-मोती’ में अनेक स्तरों पर बैलों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया गया है। बैलों पर आधारित खेलों का आयोजन भी देश में होता रहा है। जुताई, सिंचाई, यातायात, कोल्हू, फसल को मंडी तक पहुंचाने जैसे कितने ही महत्त्वपूर्ण कायरे में बैलों की महत्त्वपूर्ण सहायता मिल रही है। हालांकि ट्रैक्टरों के आगमन से बैलों का उपयोग अनेक स्थानों पर कम हुआ पर बहुत से खेतों में आज भी इनकी उपस्थिति बनी हुई है। जलवायु बदलाव के दौर में फॉसिल फ्यूल कम करने पर भी नये सिरे से जोर दिया जा रहा है। प्राकृतिक खेती का महत्त्व बढ़ रहा है। 

इन सब स्थितियों को ध्यान में रखते हुए गहरी चिंता का विषय है कि केंद्र सरकार के पशुपालन एवं डेयरी विभाग द्वारा ऐसी नीति और तकनीकी का प्रसार हो रहा है, जिससे बैलों के जन्म की संभावना ही बहुत कम रह जाएगी। इस लेखक ने हाल के समय में अनेक गांवों के किसानों और पशुपालकों से इस बारे में चर्चा की और उन सबने एक स्वर में कहा कि ऐसी नीति और तकनीकी उचित नहीं है और सरकार को इस पर तुरंत रोक लगानी चाहिए। 

आखिर, यह तकनीकी और इस आधार पर नीति क्या है, और किस आधार पर इसका प्रचार सरकारी स्तर पर हो रहा है? इस तकनीकी का नाम है सैक्स सार्टिड सीमेन टेक्नोल्ॉजी अथवा लिंग निश्चित करने वाली वीर्य तकनीकी। इस तकनीकी के विकास में दावा किया जाता है कि इसके आधार पर जो गर्भ करवाए जाएंगे उनमें लगभग 90 प्रतिशत संभावना होगी कि बछिया का ही जन्म होगा और बछड़े के जन्म लेने की संभावना बहुत कम होगी। दूसरे शब्दों में देश में गायों की संख्या में तेजी आएगी जबकि बैलों की संख्या नगण्य हो जाएगी। यह स्थिति इस तकनीक के माध्यम से प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है।

इस तकनीक और नीति के पक्ष में कहा जा रहा है कि दूध उत्पादन बढ़ेगा, आवारा पशुओं की संख्या कम होगी। पर यह दावा उचित नहीं लगता है क्योंकि यह तकनीकी मूलत: प्रकृति के विरुद्ध है। कोई बच्चा भी बता सकता है कि किसी भी प्रजाति के स्वस्थ और संतुलित विकास के लिए नर-मादा, दोनों का संतुलित विकास जरूरी है। इस स्पष्ट स्थिति के बावजूद यदि केवल एक लिंग आधारित विकास का प्रयास अप्राकृतिक या प्रकृति विरोधी तौर-तरीकों और तकनीकों से किया जाएगा तो इससे पूर्ण प्रजाति के लिए संकट उत्पन्न हो सकता है, और  स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। घोर आश्चर्य की बात है कि गोवंश रक्षा का इतना अधिक समर्थन करने वाली सरकार ऐसी हानिकारक नीति अपना रही है, और वह भी राष्ट्रीय गोकुल मिशन के अंतर्गत।

पीआईबी 19 जुलाई, 2022 तिथि की एक रिलीज के अनुसार इस समय तक 44 लाख सेक्सड सीमेन के डोज उपलब्ध करवाने का दावा किया गया है, और यह भी कहा गया है कि इस तकनीक आधारित 51 लाख प्रेगनेंसी की तैयारी है। इसके लिए चार सरकारी सीमेन स्टेशन स्थापित किए गए हैं जबकि तीन निजी क्षेत्र के स्टेशन भी हैं। इसके लिए बड़ी मात्रा में पशुपालकों को सब्सिडी दी जा रही है। स्पष्ट है कि इस तकनीक की प्रसार की केंद्र सरकार की तैयारी बड़े स्तर की है। इससे पहले कि इस तकनीक के प्रसार से और अधिक बड़े स्तर की क्षति हो, इस पर नये सिरे से विचार कर इसे रोक देना चाहिए। किसी भी प्रजाति से जल्दबाजी में, संकीर्ण सोच आधारित छेड़छाड़ करने से उसकी बहुत क्षति होती है, और इसके बाद यदि बड़ी भूल हो गई है, तो उसे स्वीकार कर उसे रोकना चाहिए। जरूरत तो इस बात की है, इन बैलों की खेतों और गांवों में उपस्थिति की रक्षा की जाए और विशेषकर जो किसान प्राकृतिक कृषि भी अपना रहे हैं, उनकी सहायता कर उन्हें बैल रखने के लिए भी प्रेरित किया जाए।

भारत डोगरा


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