गिग वर्कर्स : इनके बारे में भी सोचना होगा
भारतीय कामगारों का वर्किंग कल्चर, स्टाइल, काम करने के घंटे हमेशा से बहस का मुद्दा रहे हैं। इस कड़ी में स्किल्ड, अन-स्किल्ड को केंद्र में रखकर विभेद की भी बात सामने आती रहती हैं।
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हाल में जारी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट भी इस बात की तस्दीक करती है। काम के घंटे को लेकर कुछ दिनों पहले काफी विवाद देखा गया।
इससे इतर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की हाल में जारी कैब चालक-डिलीवरी ब्वाय जैसे कामगारों (गिग वर्कर्स) की स्थिति पर चिंता व्यक्त की गई है। रिपोर्ट में साफ साफ शब्दों में माना गया है कि गिग वर्कर्स यानी ऐप आधारित कैब चालक, डिलीवरी ब्वाय या इसी तरह का अन्य काम करने वाले 83 फीसद कामगार रोजाना चुनौतियों का सामना करते हुए औसतन दस घंटे से भी अधिक काम कर रहे हैं। नतीजतन इन कामगारों को न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक तनाव का भी सामना करना पड़ता है।
रिपोर्ट में टारगेट डिलीवरी को खतरनाक माना गया है और कहा गया है कि गिग वर्कर्स को एक निश्चित समयावधि में समान की डिलीवरी करनी होती है। समय पर टारगेट पूरा नहीं होने से शारीरिक, मानसिक रूप से तनाव बढ़ता है। रिपोर्ट में गिग वर्कर्स के लिए मौजूदा रेटिंग प्रणाली पर कड़ी आपत्ति व्यक्त की गई है और इसे मनमानी करार देते हुए इसकी समीक्षा पर बल दिया गया है। कई बार बेहतर काम करने के बावजूद इन गिग वर्कर्स को खराब रेटिंग मिलती है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इन गिग वर्कर्स की चुनौतियों को दूर करने व सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए नियामक ढांचा तैयार करने और इसके जरिए लक्षित प्रयासों की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
इनकी चुनौतियों में लंबे समय तक काम करना, वित्तीय तनाव और शारीरिक थकावट शामिल है। इनके लिए थोड़ी राहत वाली बात यह है कि झारखंड, कर्नाटक और राजस्थान जैसे कुछ राज्य इन्हें सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, लेकिन स्वास्थ्य बीमा, न्यूनतम मजदूरी, तनाव मुक्त कार्य स्थितियों से संबंधित उनकी अन्य चिंताओं को दूर करने के लिए और अधिक प्रयास करने की जरूरत है।
हालांकि केंद्र सरकार ने इस आगामी 2025-26 वित्तीय वर्ष के बजट में देश के गिग वर्कर्स जिनकी संख्या एक करोड़ से भी अधिक है, उन सभी कामगारों को पहचान देने के लिए पंजीकरण करने और आयुष्मान भारत योजना के तहत स्वास्थ्य सुविधा प्रदान करने का प्रावधान किया गया है। इससे उम्मीद जगी है और इसी तरह की उम्मीद कारपोरेट जगत के कामगारों में जगाने की जरूरत है क्योंकि यहां के कर्मचारी भी जबरदस्त तनाव में रहते हैं। ये लोग औसतन दस घंटे से कहीं अधिक समय तक काम करने को मजबूर हैं।
इनके नारायण मूर्ति, एस.एन. सुब्रमण्यम जैसे मालिकानों की सोच बदलनी होगी और उन्हें अहसास दिलाना होगा कि उनकी इस तरह की सोच, नजरिया से न तो उनका और ना ही कामगारों का भला होने वाला है। आर्टफिीशियल इंटेलीजेंस के दौर में जब दुनिया बड़े पैमाने पर बेरोजगारी के खतरे को महसूस कर रही है, तब काम के घंटे बढ़ाने के कारण देश में और भी बेरोजगारी बढ़ेगी, यह तय है। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि अर्थनीति की दिशा बदली जाए काम के घंटे घटाकर ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार दिया जाए और रोजगार को संवैधानिक अधिकार बनाकर राज्य की जिम्मेदारी तय की जाए कि वह नौजवानों के लिए रोजगार/नौकरी को सुनिश्चित करे।
स्वीडन ने छह घंटे कार्यदिवस की नीति अपनाई, जिससे कर्मचारियों की उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई और उनके जीवन की गुणवत्ता बेहतर हुई। जर्मनी ने भी कार्य घंटों को सीमित कर कर्मचारियों को दक्षता और कुशलता के साथ कार्य करने के लिए प्रेरित किया। इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि कार्य घंटों को घटाने से कर्मचारियों की संतुष्टि और उत्पादकता दोनों में सुधार होता है, जो संगठनों की दीर्घकालिक प्रगति के लिए भी फायदेमंद है। भारत में इस दिशा में सुधार के लिए व्यापक नीतिगत बदलावों की आवश्यकता है।
श्रम कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए, ताकि कार्यदिवस के घंटे तय हों और कंपनियां इन नियमों का सख्ती से पालन करें। ‘स्मार्ट वर्क’ के विचार को बढ़ावा देना चाहिए, जिससे कर्मचारी अपनी दक्षता और तकनीकी उपकरणों का उपयोग करते हुए कम समय में बेहतर परिणाम दे सकें। अंतत: संगठनों को यह समझना होगा कि उत्पादकता केवल काम के घंटों पर निर्भर नहीं करती, बल्कि यह कर्मचारियों की प्रेरणा, कौशल-सम्मान और प्रोत्साहन पर आधारित होती है। कर्मचारियों को बेहतर परिणाम देने के लिए प्रेरित करना और उनकी क्षमताओं का सही आकलन करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। संतुलित कार्यसंस्कृति न केवल कर्मचारियों को संतुष्टि प्रदान करती है, बल्कि उनकी उत्पादकता और समर्पण को भी बढ़ाती है।
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