मुद्दा : परिवेशगत सुधार की जरूरत
कई दशकों से देखने में आया है कि गणतंत्र या स्वतंत्रता दिवस पर शहीदों को नमन कर देशवासियों को लंबे-चौड़े वादों की सौगात देकर देश का भला करने के संकल्प लिए जाते हैं परंतु इन सब से क्या देश का भला हो सकता है?
मुद्दा : परिवेशगत सुधार की जरूरत |
कई देशों में प्रवासी भारतीयों ने कई क्षेत्रों में बुलंदियों को छुआ है। इसका मतलब हुआ कि भारतीयों में योग्यता की कोई कमी नहीं है। यदि सभी को सही मौका और प्रोत्साहन मिले तो कठिन से कठिन लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।
अगर यह बात सही है तो फिर क्या वजह है कि खिलाड़ियों पर खर्चा करने की बजाय खर्चीले खेल आयोजनों पर अरबों रुपया बर्बाद किया जाता है? कुछ हजार रुपये का कर्जा लेने वाले किसान आत्महत्या करते हैं और लाखों करोड़ का बैंकों का कर्जा हड़पने वाले उद्योगपति ऐश। आधी जनता भूखे पेट सोती है और एफसीआई के गोदामों में करोड़ों टन अनाज सड़ता है। विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और मीडिया भी ऐसी अव्यवस्था का नंगा नाच दिखाने में पीछे नहीं रहते।
नतीजतन, आतंकवाद और नक्सलवाद चरम सीमा पर पहुंचता जा रहा है। सरकार के पास विकास के लिए धन की कमी नहीं है पर धन का सदुपयोग कर विकास के कामों को ईमानदारी से करने वाल पैसे-पैसे के लिए धक्के खाते हैं और नकली योजनाओं पर अरबों रुपया डकारने वाले सरकार का धन बिना रुकावट खींच ले जाते हैं। ऐसे में स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस का क्या अर्थ लिया जाए? यही न कि हमने आजादी के नाम पर गोरे साहबों को धक्का देकर काले साहबों को बिठा दिया। पर काले साहब तो लूट के मामले में गोरों के भी बाप निकले। स्विटजरलैंड के बैंकों में सबसे ज्यादा काला धन जमा करने वालों में भारत काफी आगे है। इसलिए जरूरत है हमारी सोच में बुनियादी परिवर्तन की।
‘सब चलता है’ और ‘ऐसे ही चलेगा’ कहने वाले इस लूट में शामिल हैं। जज्बा तो यह होना चाहिए कि ‘देश सुधरेगा क्यों नहीं?’ ‘हम ऐसे ही चलने नहीं देंगे’। अब सूचना क्रांति का जमाना है। हर नागरिक को सरकार के हर कदम को जांचने-परखने का हक है। इस हथियार का इस्तेमाल पूरी ताकत से करना चाहिए। सरकार चाहे किसी भी दल की क्यों न हो उसमें में जो लोग बैठे हैं, उन्हें भी अपना रवैया बदलने की जरूरत है। एक मंत्री या मुख्यमंत्री रात के अंधेरे में मोटा पैसा खाकर उद्योगपतियों के गैर- कानूनी काम करने में तो एक मिनट की देर नहीं लगाता। पर यह जानते हुए भी कि फलां व्यक्ति या संस्था राज्य के बेकार पड़े संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल कर सकती है, उसके साथ वही तत्परता नहीं दिखाता।
आखिर क्यों? जब तक हम सही और अच्छे को बढ़ावा नहीं देंगे, उसका साथ नहीं देंगे, उसके लिए आलोचना भी सहने से नहीं डरेंगे तब तक कुछ नहीं बदलेगा। नारे बहुत दिए जाएंगे पर परिणाम केवल कागजों तक सीमित रह जाएंगे। सरकारों ने अगर अपने अधिकारियों के विरोध की परवाह करते हुए अपने कार्यकालों में कई सक्षम लोगों को यदि खुली छूट न दी होती तो अमूल और मेट्रो जैसे हजारों करोड़ के साम्राज्य कैसे खड़े होते? आम आदमी के लिए रोजगार का सृजन करना हो या देश की गरीबी दूर करना हो, सरकार की नीतियों में बुनियादी बदलाव लाना होगा। केवल आंकड़े ही नहीं साक्षात परिणाम देख कर भी नीति बननी चाहिए।
खोजी पत्रकारिता के चार दशक के मेरे अनुभव यही रहे कि बड़े से बड़ा भ्रष्टाचार बड़ी बेशर्मी से कर दिया जाता है पर सच्चाई और अच्छाई का डट कर साथ देने की हिम्मत हमारे राजनेताओं में नहीं है। इसीलिए देश का सही विकास नहीं हो रहा। खाई बढ़ रही है। हताशा बढ़ रही है। हिंसा बढ़ रही है। पर नेता चारों ओर लगी आग देख कर भी कबूतर की तरह आंखें बंद किये बैठे हैं। इसलिए फिर से समाज के मध्यम वर्ग को समाज के हित में सक्रिय होना होगा। मशाल लेकर खड़ा होना होगा। टीवी सीरियलों और उपभोक्तावाद के चंगुल से बाहर निकल कर अपने इर्द-गिर्द की बदहाली पर निगाह डालनी होगी ताकि हमारा खून खौले और हम बेहतर बदलाव के निमित्त बन सकें।
विनाश के मूक द्रष्टा नहीं। तब ही हम सही मायने में आजाद हो पाएंगे। फिलहाल तो उन्हीं अंग्रेजों के गुलाम हैं जिनसे आजादी हासिल करने का मुगालता लिए बैठे हैं। हमारे दिमागों पर उन्हीं का कब्जा है जो घटने की बजाय बढ़ता जा रहा है। ये बातें या तो शेखचिल्ली के ख्वाब जैसी लगती हैं या किसी संत का उपदेश। पर ऐसा नहीं है। इन्हीं हालात में बहुत कुछ किया जा सकता है। देश के हजारों लाखों लोग रात दिन निष्काम भाव से समाज के हित में समर्पित जीवन जी रहे हैं। हम इतना त्याग न भी करें तो भी इतना तो कर ही सकते हैं कि अपने इर्द-गिर्द की गंदगी को साफ करने की ईमानदार कोशिश करें। चाहे वह गंदगी हमारे दिमागों में हो, हमारे परिवेश में हो या हमारे समाज में हो। हम नहीं कोशिश करेंगे तो दूसरा कौन आकर हमारा देश सुधारेगा?
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