प. बंगाल : तृणमूल में ‘खेला’ तो होगा
‘खेला होबे’, खेला होबे’, यानी खेल होगा, खेल होगा? वाले जिस लोकप्रिय चुनावी नारे के बलबूते तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने 2021 (पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव) और 2024 के लोक सभा चुनाव में भाजपा समेत तमाम विरोधी दलों को धूल चटाते हुए चुनावी रण से बाहर का रास्ता दिखाया था, मौजूदा समय में वही ‘खेला’ टीएमसी के भीतर होते दिख रहा है।
प. बंगाल : तृणमूल में ‘खेला’ तो होगा |
बुआ (ममता बनर्जी) और भतीजे (अभिषेक बनर्जी) के बीच इन दिनों जो चल रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि जल्द ही टीएमसी में भी कुछ बड़ा ‘खेला’ होने वाला है।
वैसे कई दफा और कई मुद्दों पर बुआ-भतीजे में मतभेद की खबरें आती रही हैं, लेकिन बीते दिनों अभिषेक के करीबी और विश्वासपात्र माने जाने वाले दो नेताओं (पूर्व सांसद डॉ. शांतनु सेन और अराबुल इस्लाम) को बाहर का रास्ता दिखा कर ममता ने बताने की कोशिश की है कि पार्टी में सर्वेसर्वा केवल वे ही हैं। टीएमसी के कुछ नेता यह जरूर चाहते हैं कि भुआ-भतीजे का विवाद जल्द समाप्त हो जाए लेकिन विपक्ष विशेषकर भाजपा चाहती है कि भुआ-भतीजे के बीच दूरियां जितनी बढ़ेंगी, आगामी विधानसभा चुनाव में जीत उसके उतनी ही करीब होगी। मालूम हो कि 2026 में पश्चिम बंगाल विधानसभा के लिए चुनाव होने हैं।
गत लोक सभा चुनाव में राज्य में मिली करारी हार के बाद भाजपा अभी तक सूबे में अपना संगठन मजबूत नहीं कर पाई है। प्रदेश के भाजपा नेता चाहते हैं कि उनका संगठन चाहे मजबूत हो न हो, लेकिन टीएमसी का संगठन जरूर कमजोर हो जाए। सांगठनिक ताकत के तौर पर वाम मोर्चा और कांग्रेस भी नये सिरे से अपनी शुरु आत के पक्ष में हैं। 2011, 2016 और 2021 में जीत यानी हैट्रिक लगाने वाली टीएमसी अपना घर ठीक से नहीं चला पा रही है। ममता पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और टीएमसी की मुखिया हैं, तो अभिषेक पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और डायमंड हार्बर से सांसद हैं। सभी जानते हैं कि ममता के बूते ही अभिषेक को पहचान मिली, कई दफा सांसद बनने का मौका मिला और पार्टी में महासचिव जैसा महत्त्वपूर्ण पद भी, लेकिन अब अभिषेक की महत्त्वाकांक्षा और पार्टी में दखलअंदाजी बढ़ गई है, जो ममता को रास नहीं आ रहा।
अंदरखाने सूत्रों ने बताया कि इन दिनों भुआ-भतीजे के रिश्ते में पहली वाली मधुरता नहीं है। दोनों के बीच कई बार मतभेद और रार हो चुकी हैं, लेकिन अब लड़ाई सतह पर आती नजर आ रही है। भुआ-भतीजे के मनमुटाव का असर पार्टी की सेहत पर न पड़े, इसे लेकर टीएमसी के वरिष्ठ नेताओं के माथे पर चिंता की लकीरें दिख रही हैं। सूत्रों के मुताबिक टीएमसी दो खेमे में बंट गई है। एक खेमा है ममता बनर्जी का, जिसमें वे नेता शामिल हैं, जो टीएमसी के संघर्ष के दिनों से ममता के साथ हैं। दूसरा खेमा है अभिषेक का जिसमें अधिकतर नेता ऐसे हैं जिन्होंने टीएमसी के एक मुकाम पर पहुंचने के बाद ‘जोड़ाफूल’ (टीएमसी का चुनाव चिन्ह) थामा था। ऐसे में टीएमसी नये-पुराने नेताओं में बंटती नजर आ रही है।
टीएमसी में महीनों से विवाद जारी है, ममता बनर्जी और अभिषेक बनर्जी के बीच मतभेदों का कोई अंत नजर नहीं आ रहा है। पहले अभिषेक कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल में एक प्रशिक्षु महिला चिकित्सक के कथित रेप और हत्या के मामले में राज्य सरकार के रवैए की आलोचना करने वाले कलाकारों के बहिष्कार के मुद्दे पर पार्टी के कुछ नेताओं से असहमत थे, लेकिन अब ममता ने अपने भतीजे के करीबी माने जाने वाले मंत्रियों को आड़े हाथों लिया है। भुआ-भतीजे के मनमुटाव का असर पार्टी की सेहत और सूबे की राजनीति पर कितना पड़ेगा, यह जानने के लिए इंतजार करना पड़ेगा लेकिन फिलहाल इतना कहा जा सकता है कि भुआ-भतीजे के सुर नहीं मिलने से संगठन के चुनाव में दिक्कतें आ रही हैं।
हाल में भांगड़ में अराबुल इस्लाम और सावकत मोल्लाह के बीच गुटीय संघर्ष की बात सामने आई। दोनों एक-दूसरे को टीएमसी का सदस्य मानने से भी कतरा रहे थे। अंतत: अराबुल को निलंबित कर दिया गया। आरजी कर मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल में प्रशिक्षु महिला चिकित्सक साथ रेप और हत्या के बाद से स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर लगातार मुखर रहे टीएमसीके पूर्व सांसद डॉ. शांतनु सेन को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। शांतनु सेन को राजनीतिक हल्कों में अभिषेक का करीबी माना जाता है। टीएमसी ने उन्हें पाषर्द से राज्य सभा सांसद बनाया। अभिषेक की मेहरबानी से चिकित्सकों के संगठन के अखिल भारतीय अध्यक्ष बन गए थे। पार्टी के प्रवक्ता के तौर पर किया। राजनीति के पंडित इस निलंबन के पीछे भी विशेष रणनीति देख रहे हैं। आलोचकों का कहना है कि टीएमसी में निलंबन की बात कब उठती है, यह भी स्पष्ट नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि निलंबन की घोषणा उन जयप्रकाश मजूमदार ने की जो कभी भाजपा में थे। अभिषेक के दोनों करीबियों के निलंबन को लेकर सूबे की राजनीति में उथल-पुथल मची है। चर्चा है कि विधानसभा चुनाव से पहले यह ‘खेला’ कहां तक चलेगा और कहां जाकर खत्म होगा।
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