मुद्दा : मनीष और मुकेश के लिए क्यों खड़े हों..
पत्रकार मुकेश चंद्राकर की बर्बर हत्या ने देश को हिला कर रख ही दिया था कि 5 जनवरी को लेखक, अनुवादक और राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता मनीष आजाद की गिरफ्तारी की खबर मिली।
![]() मुद्दा : मनीष और मुकेश के लिए क्यों खड़े हों.. |
मनीष और उनकी जीवन साथी अमिता शीरीन को 2019 में भी माओवादियों से संपर्क के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका था पर अभी तक उनके ऊपर किसी तरह के आरोप सिद्ध नहीं हुए हैं और फिलहाल वे जमानत पर थे। हैरत है कि अखबारों में छपी खबरों के मुताबिक एटीएस ने उन्हें इस आधार पर गिरफ्तार किया है कि वे सरकार के खिलाफ पूरे प्रदेश में लोगों को भड़का रहे थे..!
है न अद्भुत आरोप.! और इस आरोप में उनके ऊपर यूएपीए लगा दिया गया है..। इस आधार पर तो सभी विपक्षी पार्टयिों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया जाना चाहिए क्योंकि उनका तो काम ही है सरकार की नीतियों और दमन-उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाते हुए लोगों को जागरूक करना और सड़क पर संघर्ष करना! लेकिन मनीष की गिरफ्तारी दरअसल, प्रो. आनंद तेलतुंबड़े, वरवर राव, साईबाबा, गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज आदि बौद्धिकों की गिरफ्तारियों की ही कड़ी और विस्तार है। इन सारे बौद्धिकों को भी अर्बन नक्सल होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था और आठ-दस बीत साल जाने के बावजूद आज तक एनआईए इन पर कोई आरोप सिद्ध नहीं कर पाई है। कुछ पर तो चार्जशीट तक दाखिल नहीं है। मनीष भी कोई सामान्य राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं हैं। वे अन्वेषी मार्क्सवादी बौद्धिक हैं, और नाजिम हिकमत समेत देश- दुनिया के तमाम कवियों और लेखकों का अनुवाद करते हुए हिन्दी के बौद्धिक समाज को समृद्ध करते हैं, लेकिन कल के हिन्दी अखबारों में उनकी गिरफ्तारी की खबर की भाषा देख कर फिर हैरत हुई जो हमारा कथित मुख्यधारा का मीडिया ऐसे अवसरों पर अक्सर करता रहता है।
मनीष के लिए बार-बार लिखा गया था..‘उसे गिरफ्तार किया गया था.., वह जमानत पर था.!’ आदि-आदि इत्यादि..! एक पढ़े-लिखे जागरूक व्यक्ति के लिए इस तरह हार्डकोर अपराधियों वाली भाषा का प्रयोग आज के हिन्दी पत्रकारों के लिए इसलिए नया नहीं है क्योंकि वे खुद राजनीति की वैचारिक धाराओं के प्रति संज्ञाशून्य हैं, लेकिन ऐसे मामलों में वे पत्रकारिता का यह बुनियादी उसूल और जिम्मेदारी भी भूल चुके हैं कि सिर्फ पुलिस रोजनामचा ही पत्रकारिता नहीं हुआ करती, बल्कि पुलिस रोजनामचा जहां खत्म होता है, पुलिसिया कहानी की अपने स्तर पर छानबीन करते हुए पत्रकारिता वहीं से शुरू होती है, लेकिन कल सिर्फ एक हिन्दी अखबार ने मनीष की बहन सीमा आजाद का बयान भी थोड़ा सा छापा है, हालांकि मनीष के लिए अपराधियों वाली भाषा का इस्तेमाल उसने भी किया है।
यहां एक बात का उल्लेख और जरूरी लगता है कि माओवाद और अर्बन नक्सल होने का आरोप लगा कर जिस तरह सत्ता अपने वैचारिक-राजनीतिक विरोधियों, बौद्धिकों और पत्रकारों का उत्पीड़न करते हुए उन्हें जेल में डाल दे रही है, वह पूरे नागरिक समाज के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। मार्क्सवादी होना कोई गुनाह है। माओवाद को पढ़ना भी कोई गुनाह है। एक दशक पहले विनायक सेन को जमानत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सिर्फ माओवादी या नक्सल साहित्य रखने से साबित नहीं हो जाता कि वह व्यक्ति राज्य के खिलाफ हिंसा भड़का रहा था। मार्क्सवाद तो भारत समेत दुनिया के सभी विविद्यालयों में राजनीतिक अर्थशास्त्र और दशर्न के पाठ्यक्रमों का हिस्सा है। उसी मार्क्सवाद पर माओवाद भी आधारित है। फिर कोई मार्क्सवादी साहित्य पढ़ना और रखना गुनाह कैसे हो गया..?
जहां तक किताबों में हिंसा की बात है, तो रामायण और महाभारत समेत हमारे कई धर्म ग्रंथ हिंसा और युद्ध के वर्णनों से न सिर्फ भरे पड़े हैं, बल्कि न्याय और सत्य के लिए युद्ध का समर्थन भी करते हैं। तो क्या इस आधार पर घर में रामायण और महाभारत रखने के लिए भी लोगों को गिरफ्तार कर लिया जाएगा? इसलिए नि:स्पृहता छोड़ ब्रेख्त और पाश को याद करते हुए आज जरूरत है कि लिख, बोल और सड़क पर उतर कर मनीष और मुकेश चंद्राकर के पक्ष में मजबूती से खड़ा हुआ जाए अन्यथा सर्वसत्तावाद का दमन चक्र असहमति और अभिव्यक्ति के सारे रास्ते बंद कर देगा! अभिव्यक्ति और असहमति के सुरों की रक्षा के लिए मजबूती से खड़ा होना सही अथरे में एक ईमानदार बुद्धिजीवी और सचेत लोकतांत्रिक नागरिक होना है। अन्यथा मुकेश चंद्राकर और बलात्कारी व हत्यारे राम रहीम की करतूतों का पर्दाफाश करने वाले पत्रकार यूं ही मारे जाते रहेंगे और मनीष आजाद, रूपेश कुमार सिंह और उमर खालिद बिना सुबूत के जेल भेजे जाते रहेंगे! जिन्हें अब भी लगता है कि इस सबसे हमें क्या लेना-देना तो सर्वेर को याद करते हुए-हमें भी आपसे कुछ नहीं कहना है..!
| Tweet![]() |