मुद्दा : किसानों की कोई सुनवाई नहीं
पिछले एक साल से किसान फिर धरने पर बैठे हैं। वो भी उन मांगों के लिए जो तीन साल पहले ही केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने मान ली हैं।
मुद्दा : किसानों की कोई सुनवाई नहीं |
आप पूछ सकते हैं कि अगर किसानों की मांगें मान ली गई हैं तो वे धरने पर क्यों बैठे हैं? इसका जवाब है केंद्र सरकार की वादाखिलाफी। इसने मांगे तो मान लीं, लेकिन उस पर अमल नहीं किया।
19 नवम्बर 2021 को गुरु नानक जयंती के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का एलान किया था। इसके साथ ही कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) लागू करने के लिए एक समिति बनाने, आंदोलन के दौरान किसानों पर दर्ज किए गए मुकदमे वापस लेने और कृषि ऋणों पर उदारतापूर्वक विचार करने की बात भी कही।
इसके बाद किसानों ने 9 दिसम्बर 2021 को आंदोलन समाप्त करने पर सहमति प्रदान की और कहा कि 11 तारीख से उनकी आंदोलन से वापसी हो जाएगी, लेकिन दो साल बीत जाने के बावजूद सरकार ने किसानों की मांगों पर अमल करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया। सरकार ने एमएसपी लागू करने के लिए समिति का गठन तो कर दिया, लेकिन उसमें उन लोगों को शामिल कर दिया जो लोग कृषि कानूनों के पक्षधर थे।
इसमें किसान प्रतिनिधियों को तो शामिल किया गया, मगर बहुमत सरकार समर्थक प्रतिनिधियों का कर दिया गया। इससे नाराज होकर किसानों ने उस समिति की बैठकों में भाग लेने से ही मना कर दिया। इनका तर्क था कि समिति सारे फैसले बहुमत के आधार पर अपने पक्ष में करा लेगी। इसी तरह सरकार ने आंदोलन के दौरान किसानों पर दर्ज किए गए मुकदमों को भी वापस नहीं लिया। आज भी 55 हजार से ज्यादा किसानों पर मुकदमे दर्ज हैं। किसानों के कृषि ऋणों को लेकर भी कोई बात नहीं हुई।
इससे क्षुब्ध किसानों ने नये सिरे से आंदोलन शुरू करने का मन बनाया। करीब एक साल पहले किसान मोर्चा (गैर राजनीतिक) के प्रति निष्ठा रखने वाले किसानों ने धरना शुरू कर दिया, लेकिन इस बार उन्हें पिछली बार की तरह दिल्ली की सीमा तक नहीं पहुंचने दिया गया। उन्हें पंजाब की सीमा पर ही रोक दिया गया। किसान साल भर से वहीं धरने पर बैठे रहे, लेकिन सरकार उनसे बात करने को तैयार नहीं हुई। तब कैंसर पीड़ित 70 वर्षीय किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल ने 26 नवम्बर को आमरण अनशन की घोषणा कर दी। सरकार के कान पर तो फिर भी जूं नहीं रेंगी, मगर जब अनशन को करीब एक महीने बीत गए तो सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले का संज्ञान लिया।
उसने पंजाब सरकार को कहा कि वह डल्लेवाल को चिकित्सकीय सुविधा उपलब्ध कराए, लेकिन डल्लेवाल इसके लिए तैयार नहीं। उनका कहना है कि जब तक उनकी मांगें नहीं मानी जातीं वे चिकित्सकीय सुविधा नहीं लेंगे। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर भी किसान सवाल उठा रहे हैं। उनका कहना है कि अगर सुप्रीम कोर्ट इस मामले को सुलझाने की दिशा में सार्थक पहल करना चाहता है तो उसे पंजाब सरकार की बजाय केंद्र सरकार को हिदायत या आदेश देना चाहिए। आखिर कृषि का मसला पंजाब सरकार से तो जुड़ा नहीं है। यह केंद्र का मामला है। केंद्र की सरकार ने ही पहले मांगें मानी थीं। उसे ही इस पर अमल करना है।
अपने आंदोलन को गति देने के लिए किसानों ने बीती चार जनवरी को एक महापंचायत बुलाई थी। इस महापंचायत में एक लाख से ज्यादा किसान जुड़े। इसमें पंजाब और हरियाणा के किसान तो थे ही देश के बाकी हिस्सों से भी किसान पहुंचे। पिछली बार के आंदोलन से सबक लेते हुए किसान दो-तीन दिन पहले ही महापंचायत स्थल पर पहुंच गए थे। इस महापंचायत में डल्लेवाल भी स्ट्रेचर पर लाए गए। उन्होंने थोड़ी देर किसानों को संबोधित भी किया।
इस बीच सरकार ने अपना पुराना खेल शुरू कर दिया है। किसानों में फूट डालने वाली। जहां ये पंचायत हुई उसके बगल में ही उसी दिन एक दूसरी पंचायत भी हुई। कहा जा रहा है कि ये पंचायत सरकार के इशारे पर की गई और किसान आंदोलन के विरुद्ध बातें की गई। दूसरी तरफ सरकार ने एक नई पॉलिसी तैयार की है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का कहना है कि केंद्र सरकार इस नई पॉलिसी के जरिए एक बार फिर से निरस्त किए गए तीनों कृषि कानूनों को पिछले दरवाजे से वापस लाना चाहती है। केंद्र ने इस पॉलिसी को विचार के लिए सभी राज्यों को भेजा है। किसान भी इस पॉलिसी को लेकर सशंकित और सतर्क हैं।
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