विमर्श : टकराव से हटके आदर्श समाज की सोच
इतिहास के पृष्ठों में यह सवाल बार-बार उभरता रहा है कि किसी भी समय का कोई समाज आदर्श के कितना नजदीक या दूर रहा है, पर इसके बावजूद यह आदर्श समाज या देश कैसा होना चाहिए इसके बारे में मतभेद आज तक बने हुए हैं।
विमर्श : टकराव से हटके आदर्श समाज की सोच |
अनेक बड़े स्वार्थ और ताकतें अपने हितों के अनुसार इस आदर्श समाज की सोच प्रस्तुत करते हैं और फिर अपने संसाधनों के भरपूर उपयोग से इस सोच का ही प्रचार-प्रसार करवाते हैं और अनुचित को उचित, गलत को सही सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। इसका एक उदाहरण तो यह सोच है कि किसी एक देश का विश्व पर या बड़े क्षेत्र पर दबदबा या आधिपत्य उस देश का आदर्श है। इस तरह की सोच से किसी का भी भला नहीं होगा और बहुत सी हिंसा नाहक होगी पर शक्तिशाली देशों के असरदार व्यक्ति ऐसी सोच को तरह-तरह की आकषर्क शब्दावली में प्रस्तुत करते हैं तो उनका बहुत महिमा-मंडन किया जाता है क्योंकि शक्तिशाली और संसाधन संपन्नों को ऐसी सोच की जरूरत है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूंजीवादी और साम्यवादी देशों में एक होड़ थी कि किस व्यवस्था को विश्व में अधिक लोग अपने आदर्श के रूप में देखें और अपनाएं। दोनों व्यवस्थाओं ने अपना खूब प्रचार किया पर अपनी भीतरी समस्याओं और विसंगतियों को दूर नहीं किया। अत: पूंजीवादी व्यवस्था में शोषण और विषमता, पर्यावरण विनाश और युद्ध को बढ़ाने की प्रवृत्ति बनी रही तो साम्यवादी व्यवस्थाओं में अपने ही लोगों पर अत्याचार हुए और इसका पर्याप्त विरोध भी वहां नहीं किया जा सका।
सोवियत संघ के विघटन के बाद चीन ने भी पूंजीवादी देशों से सहयोग का रास्ता ही अपनाया और ऐसा लगा और प्रचारित भी हुआ कि अब तो पूंजीवाद की ही जीत है पर इस तरह की बहुत अनुकूल स्थितियों के बाद सबसे शक्तिशाली देशों ने युद्ध की प्रवृत्ति को छोड़ा नहीं अपितु विनाशकारी युद्धों और हमलों में दुनिया को उलझा दिया। यहां तक कि इस कारण तीसरे महायुद्ध का खतरा भी सामने आ गया। आक्रामकता के साथ पूंजीवाद की स्व-विनाशकारी प्रवृत्तियां भी नजर आई और अनुकूल स्थितियों के रहते हुए भी प्रमुख पूंजीवादी देशों (जैसे अमेरिका और ब्रिटेन) में बड़ी संख्या में लोग बुनियादी जरूरतों को जुटाने तक के लिए संघर्ष करते हुए पाए गए हैं, जबकि आज जर्मनी भी अपनी बिगड़ती आर्थिक स्थिति के बारे में बहुत चिंतित हैं। अत: बहुत अनुकूल स्थितियां मिलने पर भी पूंजीवादी व्यवस्था आदर्श समाज की स्थापना व्यापक और दीर्घ स्तर पर करने में विफल है। कुछ छोटे देशों ने थोड़े समय के लिए बेहतर परिणाम प्राप्त किए हैं, पर ये बहुत टिक नहीं पाए हैं (नाव्रे, स्वीडन आदि देशों के अनुभव) और न ही ये पूंजीवाद की कुछ व्यापक विसंगतियों से बच पाए हैं। दूसरी ओर, पर्यावरण और छोटे किसानों के हितों की रक्षा न कर पाने, लोकतंत्र और लोकतांत्रिक विपक्ष को उचित मान्यता न देने के कारण साम्यवादी व्यवस्थाएं भी अपनी इस मान्यता को तेजी से खो रही हैं जो उन्होंने बहुत से न्यायप्रिय व्यक्तियों के बीच एक समय प्राप्त की थीं। इन निराशाओं के बावजूद मनुष्य की आदर्श व्यवस्था के लिए तलाश जारी रहेगी और अधिक सार्थक परिणाम के लिए उसे पहले की गलतियों से सीखते हुए ही आगे बढ़ना होगा। मौजूदा समय विशेष कठिनाइयों का समय है क्योंकि अनेक पर्यावरणीय समस्याएं एक साथ विकट होती जा रही हैं, युद्ध अधिक खतरनाक होते जा रहे हैं और हथियार अधिक विनाशकारी होते जा रहे हैं। यह समय बहुत सावधानी से सही मार्ग खोजने का है, और उसी राह पर आगे बढ़ने का है।
इस स्थिति में यदि आदर्श समाज को इस तरह परिभाषित कर सकें जो सरल होते हुए भी तर्कसंगत हो और जिसे बहुत से लोग आसानी से समझ कर अपना सकें तो यह बहुत उपयोगी होगा। आदर्श समाज वह समाज है जो न्याय और समता, अमन-शांति और लोकतंत्र, पर्यावरण, सामाजिक संबंधों की प्रगाढ़ता, ईमानदारी, महिला-सम्मान, भेदभाव की समाप्ति और सभी जीवन-रूपों के लिए करुणा पर आधारित है। इन सभी जीवन-मूल्यों को स्थानीय स्थितियों के आधार पर अपनाना चाहिए और इस तरह आदर्श समाज का रूप विश्व में विभिन्न स्थानों पर कुछ अलग जरूर होगा पर फिर भी चूंकि बुनियादी जीवन-मूल्य एक ही हैं, तो इसमें बहुत समानता भी होगी। यह सोच एक स्तर पर सरल और सीधी-सादी है और यह ऐसा गुण है जिसके आधार पर इसे बहुत से लोग आसानी से अपना सकते हैं। पर अपने समाज की विशेष स्थितियों में जब लोग यह तय करने के लिए एकत्र होंगे कि न्याय और समता की राह क्या है, अमन-शांति की राह क्या है, तो इस बारे में बहुत से अलग-अलग विचार सामने आएंगे। इस तरह जो पहली नजर में सीधा-सरल लगता है, उसमें अनेक विवाद भी आ सकते हैं। फिर भी यदि इन जीवन-मूल्यों को सही भावना से अपनाया गया है तो कोई बड़ी कठिनाई नहीं आएगी। विवादों का समाधान हो जाएगा। अमन-शांति और लोकतंत्र की सोच को जिन्होंने भली-भांति अपना लिया है, वे थोड़ा-बहुत लड़-झगड़ कर भी अंत में इन बुनियादी सिद्धांतों पर आधारित आदर्श समाज अपनी स्थानीय स्थितियों के अनुसार बना ही लेंगे।
यदि इस तरह के प्रयास विश्व के विभिन्न देशों में होते रहेंगे तो विभिन्न देशों में इस तरह के जीवन-मूल्यों पर आधारित सोच आगे आ सकेगी और उसे विभिन्न देशों में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो सकेगा। इस तरह विभिन्न देशों में युद्ध और टकराव की संभावना को रोकने में मदद मिलेगी जो इस समय विश्व की बड़ी जरूरत है। इस व्यापक प्रयास से जुड़ने का पहला कदम तो यही है कि इन विभिन्न सिद्धांतों के आधार पर यानी न्याय, समता, अमन-शांति, पर्यावरण रक्षा, सभी जीवों के प्रति करुणा आदि के आधार पर हम अपने आसपास के परिवेश को देखने-समझने लगें, और गंभीर रचनात्मकता से सोचने लगें कि इसमें कहां, क्या, किस सुधार की जरूरत है। इस तरह के नजरिए से अपने आसपास के समाज को देखना और समझना ही इस दिशा में पहला कदम है, और अपने आप में सामाजिक प्रगति भी है। यह रचनात्मक प्रयास हो सकता है, और शिक्षा व्यवस्था में इसे महत्त्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए। बड़ी बात है कि हम अपने परिवेश को, समाज को उसके जड़ रूप में ही न देखते रहें, बल्कि इस ओर अधिक ध्यान दें कि न्याय की दृष्टि से बेहतर संबंधों, अमन-शांति की दृष्टि से इसे किस तरह का होना चाहिए। यदि नई पीढ़ी यह सोचते-विचारते हुए, इस बारे में अपनी समझ बनाते हुए अपना जीवन जीएगी तो निश्चय ही एक बेहतर दुनिया बनाने में बहुत मदद मिलेगी। दुर्भाग्यवश शिक्षा सुधारों में प्राय: इस तरह की सोच को अधिक महत्त्व नहीं दिया गया है, पर यदि यह हो सके तो यह एक महत्त्वपूर्ण कदम सही दिशा में होगा।
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