स्वामी श्रद्धानंद : राष्ट्रीय एकता के अग्रदूत
नवजागरण, समाज सुधार, वैदिक शिक्षा और शुद्धिकरण के पुरोधाओं में स्वामी श्रद्धानंद का नाम आजादी के इतिहास के पन्नों में उन पंक्तियों में दर्ज है, जो फौलादी और देशभक्त बनने की प्रेरणा देने वाली हैं। राष्ट्र के लिए बलिदान होने वाले वीर सपूतों का मूल्यांकन हम कर पाएं या न कर पाएं, लेकिन जिन्होंने अपना सब कुछ हंसते हुए देश और समाज के लिए न्यौछावर कर दिया, वे एकदम अलग किस्म के लोग थे।
स्वामी श्रद्धानंद : राष्ट्रीय एकता के अग्रदूत |
स्वामी श्रद्धानंद भी ऐसे ही महामानव थे। हम उनके बलिदान की कीमत समझ पाए हैं कि नहीं, यदि समझ पाए हैं, तो उनके प्रति नतमस्तक होकर उनसे प्रेरणा तो लेना ही चाहिए। भारतीय इतिहास का ऐसा निराला व्यक्तित्व, जिसकी तारीफ करते गांधी भी नहीं थकते थे, वाकई में कैसा रहा होगा।
हम क्या उस मंजर पर यकीन कर सकते हैं, जब कोई दिल्ली की जामा मस्जिद के मुख्य द्वार पर खड़े होकर वेद मंत्रों का पाठ करते हुए हिन्दू-मुसलमान, दोनों को एक साथ संबोधित कर रहा हो, इतने में अंग्रेजी सेना के सिपाही आकर भाषण रोकने के लिए कहते हों, और वह फौलादी योद्धा अपना भाषण रोकने से इंकार कर देता हो, जिससे उस पर गोली चलाने का हुकम हो जाता है, लेकिन वह सच्चा सेनानी डरता नहीं, बल्कि दहाड़ कर सीना खोल कर कहता है-‘लो चलाओ गोली, हम तैयार हैं।’ और उस हुतात्मा की दहाड़ सुन सभी सैनिकों की बंदूकें नीचे की तरफ जाती गई हों, तो हम समझ सकते हैं उस योद्धा की निडरता के बारे में?
देश को आजाद हुए 77 साल हो गए हैं। बलिदान की कहानियां इतिहास बन गई, यदि उस पर नजर डालें तो शायद ही समझ पाएं स्वामी श्रद्धानंद सरीखे शहीदों के बलिदान की कीमत हमारे लिए क्या है? स्वामी श्रद्धानंद का नाम आते ही सामने ऐसे योद्धा की मूर्ति सम्मुख आकर खड़ी हो जाती है, जिसमें निडरता, सहिष्णुता, करुणा, मानवता, पवित्रता और विद्या जैसे अनगिनत मूल्य समाहित हैं।
कहावत ‘जंगल में मंगल’ सभी ने सुनी तो है, परंतु उसका मूर्त रूप देखना हो तो महात्मा मुंशीराम के जीवन-कायरे में हम देख सकते हैं। वेद, जो केवल पढ़ने और सुनने के लिए नहीं हैं, बल्कि मानव जीवन के सवरेत्तम मार्ग-दर्शक हैं, को यदि किसी युग पुरुष के जीवन में देखना हो तो हमारे सामने ऋषि दयानंद के इस अद्भुत उत्तराधिकारी का जीवन है। यही तो मानव जीवन की रहस्यमयता है कि बिगड़ा हुआ व्यक्ति किसी देव पुरु ष के संपर्क में आकर कितना ऊंचा उठ सकता है, इसे देखने के लिए स्वामी श्रद्धानंद का जीवन देखना होगा।
दो फरवरी, 1856 में तलवन पंजाब में जन्म लेने वाला साधारण सा बालक कुसंगति के कारण इतना गिरा कि जब उठने लगता है तो उसे खुद आश्चर्य होता है, वह कैसे इतना बदल गया जिस पर लोगों को यकीन ही न हो। यही बदलाव तो मानव को महामानव बनाता है। हम उन्हें गुरुकुल शिक्षा पण्राली के संवाहक कहें, अनेक गुरु कुलों के संस्थापक, जिनमें गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय प्रमुख है, एक महान शिक्षाविद् कहें, धर्म-रक्षक कहें, देश की आजादी के योद्धा कहें या शुद्धिकरण का अग्रदूत, कुछ भी कहें, वे सब कुछ के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ थे जिसका वर्णन दो-चार पंक्तियों में संभव ही नहीं है। उनमें देश, समाज, संस्कृति, धर्म, शिक्षा, नारी उत्थान और गिरे-मजलूमों के प्रति अखंड संवेदना तो थी ही, मानव समाज के समग्र कल्याण के सूत्र भी थे, जो उन्होंने ऋषि दयानंद से प्राप्त किए थे, जीवन-भर जीते रहे और समाज को देते रहे। यही तो युगधर्मिंता का भाव-बोध है।
क्रांति किसे कहते हैं, यदि देखना हो तो महात्मा मुंशीराम के जीवन में आकर देखना होगा। पत्रकारिता के माध्यम से जनजागरण, बिछुड़ों के शुद्धिकरण के माध्यम से अपनों को समाज में यथायोग्य जगह और सम्मान दिलाने के लिए जान की बाजी तक लगा देना, कांग्रेस के माध्यम से देश सेवा का व्रत लेना, गांधी को महात्मा कह कर उनका सम्मान बढ़ाने की पवित्र भावना, दलितों, वंचितों, असहायों, महिलाओं और बच्चों को वैदिक शिक्षा के माध्यम से देश और समाज के लिए तैयार करने जैसे ऐतिहासिक कायरे को हम गिनाते जाएं तो पता चलेगा, इस वैदिक मिशनरी ने कितने कार्य एक साथ किए।
पत्रकारिता को देश, समाज और संस्कृति जागरण का माध्यम बनाने वाले इस महामानव ने उस समय अंग्रेजों के छल-छद्म, क्रूरता, भेदभाव, पशुता, निर्दयता, शोषण, जुल्म, अमानवीयता और भारत को अनंतकाल तक गुलाम बनाने की मंशा के विरोध में हजारों के मध्य बिना एक पल रु के ललकारा। उन्होंने यह सब अपनी पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से किया। पत्रकारिता क्या होती है, और पत्रकार व संपादक का समाज और देश के प्रति क्या दायित्व होता है, इसे हम स्वामी श्रद्धानंद की पत्रकारिता में पाते हैं।
अंग्रेजों से डर कर कोई भी समाज-देश विरोधी बात या कार्य एक बार भी जीवन में नहीं किया। वेद का पूर्ण यज्ञयीय जीवन जिया और मरे भी तो ऐसे कि महात्मा गांधी को भी सोचने को मजबूर कर दिया। उनके समय में कांग्रेस में मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति प्रारंभ हो चुकी थी, जिसके कारण उन्हें विवश होकर कांग्रेस से अलग होना पड़ा। स्वामी श्रद्धानंद ने कांग्रेस छोड़ने के बाद अपना पूरा ध्यान शुद्धि आंदोलन में लगा दिया। शुद्धि आंदोलन के माध्यम से जबरन मुस्लिम और ईसाई बने हिन्दू भाइयों के पुन: हिन्दू बनने का रास्ता साफ कर दिया।
जब देश-समाज इधर-उधर भटक रहा हो तो बांसुरी नहीं, बल्कि तप और त्याग की आवश्यकता होती है। इस बात को स्वामी जी अपने पत्रों के अतिरिक्त प्रवचनों और भाषणों में व्यक्त किया करते थे। कहा करते थे-यदि देश-समाज की सेवा जीवन का उद्देश्य हो तो जीवन कितना छोटा होता है। शुद्धि आंदोलन, समाज सुधार, नारी दलित उत्थान, वैदिक शिक्षा पण्राली और कौमी एकता का यह मसीहा संघर्ष से जूझता रहा। समाज में ऐसे अराजक तत्व भी होते हैं, जो समाज और मानव निर्माण के कार्यों का विरोध करते हैं। ऐसा ही एक विरोधी हत्यारा अब्दुल रशीद था, जिसने चांदनी चौक में एक धर्म चर्चा के बहाने 23 दिसम्बर, 1926 को उन्हें गोली मार दी। गोली खा कर यह महामानव अपने अधूरे कायरे को समेटे बिना हमेशा के लिए हमारे बीच से चल बसा।
(लेख में विचार निजी हैं)
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