एक देश एक चुनाव : दलगत राजनीति से उठें सियासी दल

Last Updated 18 Dec 2024 01:37:14 PM IST

केंद्र सरकार की तरफ से कानून मंत्री अर्जुनदेव मेघवाल ने बहुप्रतीक्षित बिल एक देश एक चुनाव को लोक सभा में 17 दिसम्बर को पेश किया, लेकिन विपक्षी दलों के विरोध के चलते हो हंगामा हुआ।


एक देश एक चुनाव : दलगत राजनीति से उठें सियासी दल

इसी के बीच इसकी चर्चा और पारित किए जाने को लेकर मतदान कराया गया। मतदान में बिल के पक्ष में 269 और विपक्ष में 198 मत पड़े। बिल को जेपीसी के पास भेज दिया गया है।
यह पहली बार है जब किसी बिल पर विपक्ष के विरोध की वजह से मत विभाजन कराया गया। विपक्ष इससे संविधान पर असर पड़ने की बात कर रहा है तो सरकार इस आशंका को निराधार बता रही है, लेकिन इतना तो इस बार हुआ कि विपक्ष की एक जुटना की वजह से सरकार ने इसे जेपीसी को भेजा, लेकिन सवाल यह है कि क्या वाकई में इससे संविधान पर असर पड़ेगा या यह विपक्ष का महज प्रोपोगंडा भर है। दो माह पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल के जरिए ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ (ओएनओपी) को मंजूरी दिए जाने पर तमाम राजनीतिक दलों और राजनीति के जानकारों की मिली-जुली प्रतिक्रियाएं आई थीं, लेकिन ज्यादातर लोगों ने निहित स्वार्थ से ऊपर उठकर इसका खैरमकदम किया। इस साल आम चुनाव में भाजपा ने ओएनओपी की प्रणाली चुनाव जीतने के बाद लागू करने का वादा किया था। यह उसी वादे को इस दिशा में अगला कदम है।

जानकारों का मानना है कि रिपोर्ट में लिखी गई बातें, सिफारिशें और नियम सभी राष्ट्र को मजबूत और विकसित राष्ट्र बनाने के अनुरूप हैं।  हालांकि कुछ पार्टयिां या बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोग इसे महज भाजपा का एक ध्यान हटाने का एजेंडा कह रहे हैं। यह उनकी सतही सोच का परिणाम ज्यादा लगता है। हकीकत से बहुत दूर। दरअसल, जब देशहित में कोई निर्णय केंद्र सरकार लेती है तो उस निर्णय का भविष्य में होने वाले सभी क्षेत्रों पर असर और समाज पर पड़ने वाले सकारात्मक और नकारात्मक असर पर भी गौर करती है। विपक्ष को यह नही भूलना चाहिए कि सबसे पहले देश है फिर कोई दल या मजहब।

जो लोग ओएनओपी को विकास का मिशन बता रहे हैं उनके तर्क को भी बगैर दुराग्रह-आग्रह के समझा जाना चाहिए। तभी तो सोच और चिंतन निष्पक्ष माने जाएंगे। एक सकारात्मक तर्क इसके पक्ष में यह भी दिया जा रहा है कि इससे प्रशासनिक दक्षता बढेगी और मतदान का प्रतिशत बढ़ सकता है, जो लोकतंत्र की मजबूती के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है। मिसाल के तोर पर चुनाव आयोग की रिपोर्ट बताती है कि 2019 के चुनावों के दौरान तकरीबन 60 हजार करोड़ रु पए की हैरान करने वाली राशि का उपयोग किया गया था। इसमें चुनावी प्रक्रिया में हिस्सा लेने वाली राजनीतिक पार्टयिों के जरिए वहन की गई लागत और चुनावों के आयोजन में भारत के चुनाव आयोग का खर्च शामिल है। इसके अलावा सुरक्षाकर्मिंयों की बार-बार तैनाती और स्थानांतरण से जुड़ी पर्याप्त और जाहिर लागतें हैं।

ओएनओपी ऐसा दूरगामी देश नवनिर्माण का मिशन होगा जिससे साल भर चलने वाले चुनावों से तकरीबन छुटकारा मिल जाएगा। जाहिर तौर पर बार-बार के चुनाव से जहां विकास और प्रगति में जबरदस्त रु कावट आती है वहीं पर धन-जन-संसाधनों की बेतहाशा बर्बादी को रोकने में मदद मिलेगी। चुनाव आयोग के पूर्व आयुक्त ओपी रावत कुछ सुझाव देते हैं। वे सरकार को इसके लिए चार काम करने की बात कहते हैं, जिसमें संविधान के उन अनुच्छेदों में संशोधन जरूरी होगा, विधान सभाओं के कार्यकाल और राष्ट्रपति शासन लगाने के प्रावधानों को बदलना होगा। निर्वाचन आयोग के मुताबिक जन प्रतिनिधित्व कानून और सदन में अविश्वास प्रस्ताव को लाने के नियमों को बदलना होगा। इसके लिए अविश्वास प्रस्ताव की जगह रचनात्मक विश्वास प्रस्ताव की व्यवस्था करनी होगी।

यानी अविश्वास प्रस्ताव के साथ यह भी बताना होगा कि किसी सरकार को हटाकर कौन सी नई सरकार बनाई जाए, जिसमें सदन को विश्वास हो ताकि पुरानी सरकार गिरने के बाद नई सरकार के साथ विधान सभा या लोक सभा का कार्यकाल पांच साल तक चल सके। ऐसे भी सवाल उठाए जा रहे हैं कि इसके लागू होने के बाद केंद्र और राज्य सरकारों के बीच टकराहट बढ़ जाएगी। लोक सभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचारी का मानना है कि एक देश एक चुनाव का मुद्दा व्यावहारिक नहीं है क्योंकि इसके लिए जरूरी है कि देश की सभी विधान सभाएं एक साथ भंग हों, जो संभव ही नहीं है।

वहीं पर पूर्व मुख्य चुनाव अयुक्त एस.वाई. कुरैशी का मानना है कि एक साथ चुनाव कराने का मतलब है आपको स्थानीय निकायों के चुनाव भी साथ कराने होंगे। ऐसे में जनता एक बार बटन दबाए या तीन बार दबाए, इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि राज्य में चुनाव के बाद किसी एक दल या गठबंधन को बहुमत न मिले तो ऐसे हालात में राजनीतिक अस्थिरता खड़ी हो सकती है। ऐसे तमाम मुद्दों को लेकर एक राष्ट्र एक चुनाव पर सवाल किए जा रहे हैं। देखना यह है कि केंद्र सरकार ऐसा कौन सा रास्ता व कदम उठाती है जिससे सबकी सहमति हासिल हो जाए।

अखिलेश आर्येन्दु


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