राष्ट्रीय एकता : बाहरी दबाव का सामना करने में एक रहें

Last Updated 01 Dec 2024 09:31:47 AM IST

किसी भी लोकतंत्र के लिए विपक्ष की मजबूती और सक्रियता एक आधार-स्तंभ है।


चाहे विधायिका के स्तर पर विपक्ष की संख्या कम हो या अधिक, यदि विपक्ष सरकारी नीतियों और उनके क्रियान्वयन के संतुलित आकलन के आधार पर कमियों और त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाने की रचनात्मक भूमिका निभाएगा तो इससे देश को निश्चित तौर पर लाभ होगा और लोकतंत्र को भी मजबूती मिलेगी।

ऐतिहासिक तौर पर देखें तो आजादी के बाद बनी सरकार ने विपक्ष की ऐसी मजबूत भूमिका को स्वीकार किया और उस समय संसद में विपक्षी दलों की संख्या काफी कम होने के बावजूद विपक्ष की आलोचना की महत्त्वपूर्ण भूमिका बनी रही और सरकार इस पर ध्यान भी देती थी। जब संसद में विपक्ष की ओर में कोई नई प्रतिभा उभरती थी, तो सरकार उस पर विशेष ध्यान देती थी। अटल बिहारी वाजपेयी ने जब युवा सांसद के रूप में अपने आरंभिक भाषण बहुत असरदार ढंग से दिए तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसे सराहा।

हालांकि इसके बाद कई उतार-चढ़ाव आए पर कुल मिला कर भारतीय लोकतंत्र में विपक्ष की महत्त्वपूर्ण भूमिका को प्रतिष्ठा मिलती रही और भारतीय लोकतंत्र के सभी हितैषी चाहते हैं कि सदा ऐसा ही रहे। विपक्ष की सरकार की आलोचना के महत्त्व को रेखांकित करते हुए भी यह कहना जरूरी है कि जब देश पर और देश की निर्वाचित सरकार पर अनुचित बाहरी दबाव विशेषकर बड़ी शक्तियों के दबाव बहुत बढ़ जाते हैं, तो उस समय आपसी भेदभावों को भुला कर देश में राष्ट्रीय एकता को बनाए रखना जरूरी हो जाता है ताकि बाहरी बड़ी ताकतों को संदेश मिल जाए कि व्यापक राष्ट्रीय हितों की रक्षा में देश एक है।

यदि हाल के विश्व इतिहास को देखा जाए तो चाहे प्रत्यक्ष उपनिवेशवाद का दौर समाप्त हो चुका है, पर नवउपनिवेशवाद का दौर अभी भी जारी है। विश्व की बड़ी ताकतें विश्व में आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य स्तर पर अपना दबदबा बनाए रखना चाहती हैं। अपने इस व्यापक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न विकासशील देशों की भूमिकाओं को अपने ढंग से तय करती हैं कि इनसे हमें इस तरह का सहयोग चाहिए, इस तरह की नीतियां चाहिए। कुछ विकासशील देश उनकी इस तरह की मनमानी को अल्पकालीन दृष्टि से लाभदायक मानते हुए स्वीकार भी कर लेते हैं पर जो अधिक मजबूत देश हैं, वे इस मनमानी को सहन करने से इंकार कर देते हैं क्योंकि वे उन नीतियों को नहीं अपनाना चाहते जो उनके देश के लिए हानिकारक हैं।

इस स्थिति में बड़ी ताकतें अनेक प्रकार से विकासशील देशों की सरकारों और उनके नेतृत्वों पर दबाव बनाती हैं ताकि वे इस दबाव के आगे झुक जाएं और उनकी मनमानी को स्वीकार कर लें। इस तरह के दबाव किसी भी विकासशील देश के लिए अनेक कठिनाइयां उपस्थित कर सकते हैं और इस स्थिति में जरूरी है कि इन मामलों पर अथवा बड़ी ताकतों वाला दबाव बनाने वाले मुद्दों पर देश में एकता नजर आए। यह एकता बनाने में विपक्ष की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। यदि विपक्षी दल भी एक स्वर से कहें कि अन्य सभी संदभरे में विपक्ष की मजबूत भूमिका निभाते रहेंगे पर अनुचित विदेशी दबावों का सामना करने में सरकार के साथ खड़े नजर आएंगे तो इससे पूरे देश की मजबूती को मदद मिलेगी और देश को अनुचित दबावों से परेशान करने के विदेशी ताकतों के प्रयास सफल नहीं होंगे।

इसी तरह विभिन्न जन-संगठनों को भी ऐसे मुद्दों पर सरकार का साथ देकर राष्ट्रीय एकता बनाने में सहयोग देना चाहिए। जरूरी बात यह है कि ऐसी कोई कार्यवाही एकतरफा स्तर पर सफल नहीं हो पाएगी और सरकार को भी विपक्ष और जन-संगठनों के प्रति बेहतर सहयोग की नीति अपनानी चाहिए। अधिक व्यापक स्तर पर भी लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि सरकारें लोकतंत्र की भावनाओं के अनुकूल विपक्षी दलों और जन-संगठनों से सद्भावनापूर्ण संबंध बनाएं। सरकार की ऐसी सद्भावनापूर्ण पहल से देश का समग्र सामाजिक और राजनीतिक माहौल को सुधारने में भी मदद मिलेगी और राष्ट्रीय प्रगति के बेहतर अवसर उत्पन्न होंगे।

ऐसी स्थितियों को बनाने के लिए सबसे पहला प्रयास तो यह हो सकता है कि एक-दूसरे के प्रति बहुत तीखे बयान देने की प्रवृत्ति से राष्ट्रीय स्तर के नेता पहरेज करें। एक-दूसरे की नीतियों की आलोचना तो लोकतंत्र में सार्थक भी है, और जरूरी भी, पर इस आलोचना को व्यक्तिगत स्तर पर न ले जाएं और अधिक तीखा न बनाएं। एक-दूसरे के विरुद्ध कोई कार्यवाही बदले की भावना से न करें या कोई ऐसी हानि न पहुंचाएं जो केवल राजनीतिक कारणों से प्रेरित हो।

इस तरह की पहल से देश में एकता और सद्भावना की दृष्टि से बेहतर माहौल बनाने में सहायता मिलेगी। ऐसे माहौल में यह संभावना भी बढ़ जाएगी कि जब भी विदेशी ताकतें देश पर तरह-तरह का अनुचित दबाव बनाने का प्रयास करें तो राष्ट्रीय स्तर पर एकता बना कर इसका विरोध किया जा सके।
इस तरह की एकता देश में नजर आएगी तो विदेशी ताकतों के ऐसे कुप्रयास भी अपने आप कम हो जाएंगे। दूसरी ओर, यदि ऐसी एकता नहीं नजर आएगी तो अनुचित दबाव बनाने के लिए विदेशी ताकतों के कुप्रयास और बढ़ सकते हैं। इस तरह के प्रयासों को और आगे बढ़ाते हुए और सभी राजनीतिक दलों का सहयोग प्राप्त करते हुए यदि जमीनी स्तर पर भी राष्ट्रीय एकता ‘हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई’ की बढ़ती एकता और सद्भावना के स्तर के रूप में तो मजबूत हो तो उससे देश में प्रगति के अवसर और खुशहाली के अवसर और भी तेजी से बढ़ेंगे।

आजादी की लड़ाई के दिनों में देश के सभी महान नेताओं ने इस बारे में व्यापक सहमति बनाने के लिए बहुत प्रयास किए थे कि धार्मिक भेदभावों को दूर कर राष्ट्रीय एकता को मजबूत किया जाए। महात्मा गांधी और शहीद भगत सिंह, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस-ये देश के उस समय के वे नेता थे जिन्हें देशवासियों का बहुत समर्थन मिला और बहुत प्यार भी मिला। करोड़ों लोगों के आदर-सम्मान के केंद्र में ये नेता बहुत समय तक रहे और आज भी उनकी यह जगह बनी हुई है। उनमें कई मामलों में कुछ अलग विचार हो सकते थे पर जिस एक विषय पर उनके विचार पूरी तरह एक थे वह था देश में मजहबी एकता को मजबूत करना और इस आधार पर देश को और स्वतंत्रता संघर्ष को मजबूत करता है।

इन सभी नेताओं के लिए यह हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी यदि जमीनों स्तर पर इस राष्ट्रीय एकता को मजबूत कर और विदेशी दबावों का सामना करने में भी राष्ट्रीय एकता को कायम रखें। वैसे तो जमीनी और राजनीतिक स्तर पर यह राष्ट्रीय एकता सदा महत्त्वपूर्ण रही है, पर मौजूदा अंतरराष्ट्रीय स्थिति के संदर्भ में यह और भी महत्त्वपूर्ण है।

भारत डोगरा


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