जलवायु बदलाव कार्यक्रम को न्यायसंगत बनाएं
इन दिनों जलवायु बदलाव का मुद्दा बहुत चर्चा में है क्योंकि इस महीने 11 नवम्बर को जलवायु बदलाव का महासम्मेलन (संयुक्त राष्ट्र संघ फ्रेमवर्क कंवेंशन का जलवायु बदलाव पर 29वां सम्मेलन) आरंभ हो रहा है।
जलवायु बदलाव कार्यक्रम को न्यायसंगत बनाएं |
संयुक्त राष्ट्र महासंघ के महानिदेशक एंतोनियो गुटरेस ने इस बाबत जारी अपने बयान में कहा है कि जलवायु बदलाव नियंत्रण के क्षेत्र में उचित प्रगति न करने के कारण विश्व स्तर पर अनेक गंभीर आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है और यह विफलता बनी रही तो और भी भयंकर आपदाएं तबाही मचा सकती हैं।
विकासशील और निर्धन देशों के लिए विशेष चिंता की बात यह है कि धनी देश और उनकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां जलवायु बदलाव संबंधी एजेंडे को ऐसी दिशा में ले जाना चाहते हैं जिससे धनी देशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को साध लिया जाए। दूसरी ओर, इस राह पर चलते हुए विकासशील और निर्धन देशों विशेषकर उनके किसानों और मजदूरों की समस्याएं कई स्तरों पर बढ़ सकती हैं।
जलवायु बदलाव के विमर्श के आरंभिक दिनों को हम याद करें तो उस समय इस तथ्य को अधिक महत्त्व दिया जाता था कि जलवायु बदलाव और ग्रीनहाऊस गैसों के अधिक उत्सर्जन के लिए ऐतिहासिक तौर पर आज के धनी देश अधिक जिम्मेदार हैं। अत: चाहे विकासशील और निर्धन देशों को भी जलवायु बदलाव नियंत्रण की अपनी जिम्मेदारी निभानी ही है पर इसका अधिक दायित्व धनी देशों पर है। इस ऐतिहासिक जिम्मेदारी और अधिक प्रदूषण वाली मौजूदा जीवन-शैली के आधार पर माना गया कि धनी देश अधिक जिम्मेदारी संभालेंगे और साथ में विकासशील और निर्धन देशों को अपनी जिम्मेदारी निभाने में पर्याप्त और समुचित सहायता आर्थिक और तकनीकी स्तर पर करेंगे।
कड़वी सच्चाई यह है कि धनी देश न केवल इन जिम्मेदारियों को निभाने में विफल रहे हैं, अपितु उनकी कहीं अधिक जिम्मेदारी को जो मजबूत सैद्धांतिक आधार पहले मिल गया था, उसको और उससे संबंधित व्यापक सहमति को भी तरह-तरह से तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। यहां तक कि सबसे अधिक प्रदूषण करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां ऐसे तमाम हथकंडों को अपना रही हैं जिनसे उनके अधिक प्रदूषण करने वाले व्यवसायों का पहले से और अधिक प्रसार हो सके पर उस पर किसी तरह तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर, ग्रीन या पर्यावरण की दृष्टि से उचित होने का लेबल चिपका दिया जाए। इन सब खतरनाक प्रवृत्तियों पर रोक लगाते हुए आज जरूरत इस बात की है कि जलवायु बदलाव नियंत्रण और अनुकूलन (मिटिगेशन एंड एडेप्टेशन) का ऐसा एजेंडा सामने लाया जाए जो सही मायने में न्यायसंगत हो।
एक महत्त्वपूर्ण विकासशील देश के रूप में भारत की यह भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण हो सकती है कि जलवायु बदलाव को नियंत्रित करने के एजेंडे को न्यायसंगत बनाया जाए। इसके लिए विश्व स्तर पर ऐसा कार्यक्रम बनना चाहिए जिसमें ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य को सब लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लक्ष्य से जोड़ा जाए। पर्यावरण की रक्षा की जरूरत निरंतर बढ़ती जा रही है।
कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि जलवायु बदलाव के दौर में तो पर्यावरण की रक्षा सबसे बड़ी प्राथमिकता बनता जा रहा है। इसके बावजूद आज भी जलवायु बदलाव जैसे मुद्दे के साथ बहुत व्यापक स्तर के जन-आंदोलन नहीं जुड़ सके हैं। पर्यावरण की रक्षा से जुड़े लोगों को इस बारे में गहरा चिंतन-मनन करना होगा कि जिस समय पर्यावरण आंदोलन की सार्थकता अपने उत्कर्ष पर है, उस समय में विश्व स्तर पर उसे वैसा व्यापक जन-समर्थन क्यों नहीं मिल रहा है, जिसकी उसे बहुत जरूरत है। यदि इस बारे में पूरी ईमानदारी से चिंतन-मनन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि बढ़ती प्रासंगिकता के बावजूद विश्व स्तर पर पर्यावरण के अांदोलन का जन-आधार इस कारण व्यापक नहीं हो सका है क्योंकि इसमें न्याय और समता के मुद्दों का उचित ढंग से समावेश नहीं हो पाया है।
जलवायु बदलाव के संकट को नियंत्रण करने के उपायों में जनसाधारण की भागेदारी प्राप्त करने का सबसे असरदार उपाय यह है कि विश्व स्तर पर ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में पर्याप्त कमी उचित समय-अवधि में लाए जाने की ऐसी योजना बनाई जाए जो सभी लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने से जुड़ी हो और फिर इस योजना को कार्यान्वित करने की दिशा में तेजी से बढ़ा जाए। यदि इस तरह की योजना बना कर कार्य होगा तो ग्रीनहाऊस गैस उत्सर्जन में कमी के जरूरी लक्ष्य के साथ-साथ करोड़ों अभावग्रस्त लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने का लक्ष्य अनिवार्य तौर पर जुड़ जाएगा, और इस तरह ऐसी योजना के लिए करोड़ों लोगों का उत्साहवर्धक समर्थन प्राप्त हो सकेगा।
ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए कुछ हद तक हम फॉसिल ईधन के स्थान पर अक्षय ऊर्जा (जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा) का उपयोग कर सकते हैं, पर केवल यह पर्याप्त नहीं है। विलासिता और गैर-जरूरी उपभोग कम करना भी जरूरी है। यह तो बहुत समय से कहा जा रहा है कि विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों का दोहन बहुत सावधानी से होना चाहिए और वनों, चरागाहों, कृषि भूमि और खनिज-भंडारों का उपयोग करते हुए इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि पर्यावरण की क्षति न हो या उसे न्यूनतम किया जाए।
जलवायु बदलाव के दौर में अब नई बात यह जुड़ी है कि विभिन्न उत्पादन कार्यों के लिए कितना कार्बन स्थान या स्पेस उपलब्ध है, यह भी ध्यान में रखना जरूरी है। जब हम इन नई-पुरानी सीमाओं के बीच दुनिया के सब लोगों की जरूरतों को पूरा करने की योजना बनाते हैं तो स्पष्ट है कि वर्त्तमान अभाव की स्थिति को देखते हुए करोड़ों गरीब लोगों के लिए पौष्टिक भोजन, वस्त्र, आवास, दवाओं, कापी-किताब आदि का उत्पादन बढ़ाना होगा।
इस उत्पादन को बढ़ाने में हम पूरा प्रयास कर सकते हैं कि ग्रीनहाऊस गैस के उत्सर्जन को कम करने वाली तकनीकों का उपयोग हो पर यह एक सीमा तक ही संभव होगा। अत: यदि गरीब लोगों के लिए जरूरी उत्पादन बढ़ाना है तो उसके लिए जरूरी प्राकृतिक संसाधन और कार्बन स्पेस प्राप्त करने के लिए साथ ही जरूरी हो जाता है कि विलासिता की वस्तुओं और गैर-जरूरी वस्तुओं का उत्पादन कम किया जाए। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
यदि गरीब लोगों के लिए जरूरी उत्पादन को प्राथमिकता देने वाला नियोजन न किया गया तो फिर विश्व स्तर पर बाजार की मांग के अनुकूल ही उत्पादन होता रहेगा। वर्तमान विषमताओं वाले समाज में विश्व के धनी व्यक्तियों के पास क्रय शक्ति बेहद अन्यायपूर्ण हद तक केंद्रित है, अत: बाजार में उनकी गैर-जरूरी और विलासिता की वस्तुओं की मांग को प्राथमिकता मिलती रहेगी। अत: इन्हीं वस्तुओं के उत्पादन को प्राथमिकता मिलेगी।
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