लोकतंत्र : असहमति की गुंजाइश बनी रहनी चाहिए
दिल्ली विश्वविद्यालय, जिसे भारत के सबसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों में गिना जाता है, हाल में एक अजीबोगरीब और प्रतीकात्मक विरोध का केंद्र बना। कुछ छात्रों ने क्लासरूम की दीवारों पर गोबर लीपा और प्रिंसिपल के घर के बाहर भी गोबर फेंक दिया।
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यह कोई फिल्मी सीन नहीं था, न ही कोई ग्रामीण उत्सव-यह था एक गुस्से से भरा राजनीतिक वक्तव्य। यह घटना न केवल ध्यान खींचती है, बल्कि कई गहरे और असहज सवाल भी खड़े करती है: क्या विविद्यालय सिर्फ सत्ता का विस्तार बन चुके हैं? क्या छात्र आंदोलन केवल ‘विचारों’ से नहीं, अब ‘गंध’ से भी संवाद करने लगे हैं?
यह विरोध दिल्ली यूनिर्वसटिी के साउथ कैम्पस के एक कॉलेज में हुआ जहां छात्रों ने गोबर लीप कर क्लासरूम को ‘पवित्र’ करने की कोशिश की। दरअसल, ‘पवित्रता’ का यह तंज था-एक ऐसे सिस्टम पर, जिसे छात्र ‘अपवित्र’ मानते हैं। कहा गया कि यह विरोध जातिगत भेदभाव, एक दलित प्रोफेसर के साथ अन्याय, और प्रशासन की असंवेदनशीलता के खिलाफ था। छात्रों ने न सिर्फ कक्षाओं को गोबर से लीपा, बल्कि प्रिंसिपल के घर तक जाकर वहां भी प्रदर्शन किया।
भारत में गोबर का उपयोग सदियों से पवित्रता, शुद्धता और स्वदेशी जीवन शैली के प्रतीक के रूप में होता आया है। लेकिन इस मामले में इसका प्रयोग गहराई से व्यंग्यात्मक था। यह ऐसा प्रतीक था जो न केवल सत्ता की ‘पवित्रता’ को उलट देता है, बल्कि दिखाता है कि छात्र अब विरोध के पारंपरिक तरीकों से आगे बढ़कर सत्ता की भाषा को उसके ही प्रतीकों से जवाब दे रहे हैं। यह विरोध दरअसल उस छद्म सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर चोट करता है जो गाय, गोबर और गंगा जल को पवित्र मानता है, लेकिन दलित, आदिवासी व वंचित समुदायों की पीड़ा को अपवित्र विषय मानता है।
भारतीय विविद्यालय धीरे-धीरे उस विचारभूमि से हटते जा रहे हैं, जहां असहमति को प्रोत्साहन मिलता था। आज यदि कोई छात्र या प्रोफेसर सत्ता के खिलाफ बोलता है, तो उसे ‘राष्ट्रविरोधी’, ‘गद्दार’, या ‘विकास-विरोधी’ कहा जाने लगता है। कैम्पस अब लोकतांत्रिक संवाद के केंद्र नहीं, बल्कि डर के घेरे बनते जा रहे हैं। छात्रों के इस कदम को केवल ‘असभ्यता’ कह कर खारिज करना आसान है, लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि यह घटना उस निराशा और हताशा की उपज है जो वर्षो से भीतर ही भीतर सुलग रही है। जब संवाद के सारे रास्ते बंद कर दिए जाते हैं, तो प्रतीकात्मक और चौंकाने वाले कदम ही विकल्प बनते हैं।
यह विरोध ‘हिंसक’ नहीं था, लेकिन ‘सुगंधित’ भी नहीं था। निश्चित रूप से गोबर से दीवारें लीपना किसी भी संस्थान के लिए अनुशासनहीन हरकत मानी जाएगी। लेकिन यह भी सोचना होगा कि जब छात्र अपनी बात कहने के लिए इतना असामान्य तरीका अपनाते हैं, तो समस्या छात्रों में नहीं, व्यवस्था में भी है। वे किस हद तक खुद को असहाय और अनसुना समझते हैं, यह इस घटना से जाहिर होता है। अलबत्ता, यह विरोध मानसिक और सांस्कृतिक असहजता पैदा करने वाला जरूर था। छात्रों का प्रदर्शन प्रिंसिपल के निजी घर तक पहुंचना न केवल प्रतीकात्मक था, बल्कि दर्शाता है कि छात्रों को अब संस्थागत दायरे में न्याय की उम्मीद नहीं रही। यह खतरनाक संकेत है-न केवल शिक्षा व्यवस्था के लिए, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए भी।
मीडिया ने इस घटना को सनसनीखेज ढंग से दिखाया -‘छात्रों ने लीपा गोबर!’, ‘गाय के नाम पर राजनीति फिर से!’-लेकिन दुर्भाग्यवश किसी ने यह नहीं पूछा कि छात्र ऐसा क्यों कर रहे हैं? किस घटना ने उन्हें इस हद तक पहुंचाया? किसने संवाद के रास्ते बंद किए? मीडिया अक्सर लक्षणों पर बहस करता है, लेकिन बीमारी की जड़ तक नहीं जाता। सत्ता जब गाय और गोबर को संस्कृति का हिस्सा मान कर उन्हें नीतियों में शामिल करती है-जैसे गोबर आधारित उत्पादों को बढ़ावा देना, पंचगव्य को चिकित्सा बताना-तब वह ‘धर्म-सम्मत’ होता है।
लेकिन जब यही प्रतीक छात्रों के विरोध में आते हैं, तो वे ‘अश्लील’ और ‘असभ्य’ बन जाते हैं। यही सत्ता का दोहरापन है। छात्रों का विरोध सत्ता के इस पाखंड की पोल खोलता है-दिखाता है कि सांस्कृतिक प्रतीकों का प्रयोग केवल सत्ता के लिए सुरक्षित नहीं है, बल्कि जनता भी उन्हें विरोध के औजार बना सकती है। इस घटना के बहाने जरूरी हो गया है कि विविद्यालयों में संवाद की संस्कृति को फिर से मजबूत किया जाए। यह घटना प्रतीकात्मक चेतावनी है-शिक्षा का मंदिर यदि सत्ता की चौकी बन जाए, तो छात्र वहीं पर ‘शुद्धि यज्ञ’ करने लगते हैं। गोबर का यह विरोध हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र में असहमति की गुंजाइश बनी रहनी चाहिए -वरना दीवारें ही नहीं, सोच भी गंधाने लगती है।
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