आर्थिक विकास : ’धरती पुत्रों‘ की बढ़े भागीदारी

Last Updated 02 Nov 2024 01:45:21 PM IST

भारत भूमि का एक बड़ा हिस्सा वनों एवं जंगलों से आच्छादित है। भारतीय नागरिकों को प्रकृति का यह एक अनोखा उपहार माना जा सकता है। इन वनों एवं जंगलों की देखभाल मुख्य रूप से जनजाति समाज द्वारा की जाती रही है।


जनजाति समाज की विकास यात्रा अपनी भूख मिटाने एवं अपने को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से केवल वनों के इर्द गिर्द चलती रहती है। वास्तविक अथरे में इसीलिए जनजाति समाज को धरतीपुत्र भी कहा जाता है।

प्राचीन काल से प्रकृति ही जनजाति समाज की संपत्ति मानी जाती रही है, जिसके माध्यम से उनकी सामाजिक, आर्थिक व पारिस्थितिकीय आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहती है। कहा जाता है कि अनादि काल से जनजाति संस्कृति व वनों का चोली-दामन का साथ रहा है और जनजाति समाज का निवास क्षेत्र वन ही रहे हैं। कहा जा सकता है कि वनों ने जनजातीय जीवन व संस्कृति के उद्भव, विकास तथा संरक्षण में अपनी आधारभूत भूमिका अदा की है। भील वनवासियों का जीवन भी वनों पर ही आश्रित रहता आया है।

जनजाति समाज आजीविका के लिए वनों में उत्पन्न विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का उपयोग करते रहे हैं। शुरुआती दौर में तो जनजाति समाज उक्तवर्णित वनस्पतियों व उत्पादों का उपयोग स्वयं की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही करते थे परंतु हाल के समय में इन वनस्पतियों का उपयोग व्यावसायिक रूप में भी किया जाने लगा है। व्यावसायिक उपयोग का लाभ जनजाति समाज को न मिलकर इसका पूरा लाभ समाज के अन्य वगरे के लोग ले रहे हैं।  

वनस्पतियों व उत्पादों के व्यावसायिक उपयोग करने के बाद से ही प्रकृति का दोहन करने के स्थान पर शोषण किया जाने लगा है क्योंकि कई उद्योगों द्वारा इन उत्पादों का कच्चे माल के रूप में उपयोग किया जाने लगा है।  इससे ध्यान में आता है कि जनजाति समाज द्वारा देश की अर्थव्यवस्था में विकास को गति देने के उद्देश्य से अपनी भूमिका का निर्वहन तो बहुत सफल तरीके से किया जाता रहा है परंतु अर्थव्यवस्था के विकास का लाभ जनजातियों तक सही मात्रा में पहुंच नहीं सका है। हालांकि अब जनजाति समाज धीरे-धीरे अपने आप को कृषि व पशुपालन जैसे अन्य कार्यों में भी संलग्न करने लगा है। जनजाति समाज ने कृषि कार्य के लिए सर्वप्रथम जंगलों को काटकर जलाया।

भूमि साफ कर इसे कृषि योग्य बनाया और पशुपालन को प्रोत्साहन दिया। विकास की धारा में आगे बढ़ते हुए धीरे-धीरे विभिन्न गावों व कस्बों का निर्माण किया। आज भी जनजाति समाज की अधिकांश जनसंख्या दुर्गम क्षेत्रों में निवास करती है। इन इलाकों  में संचार माध्यमों का अभाव है। हालांकि धीरे-धीरे अब सभी प्रकार की सुविधाएं इन सुदूर इलाकों में भी पहुंचाई जा रही हैं परंतु अभी भी जनजातीय समाज कृषि संबंधी उन्नत विधियों से अनभिज्ञ है। सिंचाई साधनों का अभाव एवं उपजाऊ भूमि की कमी के कारण ये लोग परंपरागत कृषि व्यवस्था को अपनाते रहे हैं, और इनकी उत्पादकता कम है। जनजाति समाज ने वनों के सहारे अपनी संस्कृति को विकसित किया। घने जंगलों में विचरण करते हुए उन्होंने जंगली जानवरों से बचने के लिए आखेट अपनाया।

वनों एवं पहाड़ियों के आंतरिक भागों में रहते हुए भील समाज शिकार करके अपनी आजीविका चलाता रहा है। भील समाज जंगलों में झूम पद्धति से खेती, पशुपालन, एवं आखेट कर अपने परिवार का पालन-पोषण करते रहे हैं। घने जंगलों में जनजाति समाज को प्रकृति द्वारा स्वछंद वातावरण, स्वच्छ जल, नदियां, नाले, झरने, पशु-पक्षियों का कोलाहल, सीमित तापमान, हरियाली, आर्दता, समय पर वष्रा, मिट्टी कटाव से रोक, आंधी व तूफानों से रक्षा, प्राकृतिक खाद, बाढ़ पर नियंत्रण, वन्य प्राणियों का शिकार व मनोरंजन इत्यादि प्राकृतिक रूप से उपलब्ध कराया जाता रहा है। इसी के चलते जनजाति समाज घने जंगलों में भी संतोष एवं प्रसन्नता के साथ रहता है। जनजाति समाज आज भी भारतीय संस्कृति का वाहक माना जाता है क्योंकि यह समाज सनातन हिन्दू संस्कृति का पूरे अनुशासन के साथ पालन करता पाया जाता है। जनजाति समाज आज भी आधुनिक चमक-दमक से अपने आप को बचाए हुए हैं। इसके विपरीत शहरों में रहने वाला समाज समय-समय पर भारतीय परंपराओं में अपनी सुविधानुसार परिवर्तन करता रहता है। हाल के समय में अत्यधिक आर्थिक महत्त्वाकांक्षा के चलते वनों का अदूरदर्शितापूर्ण ढंग से शोषण किया जा रहा है।

विश्व पर्यावरण एवं विकास आयोग के अनुसार विश्व में प्रति वर्ष 110 लाख हेक्टेयर भूमि के वन नष्ट किए जा रहे हैं। पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार प्रत्येक देश में उपलब्ध भूमि के लगभग 33 प्रतिशत भाग पर वन होना आवश्यक है। यदि वनों का इस प्रकार कटाव होता रहेगा तो जनजाति समाज पर विपरीत प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। भारत द्वारा इस संदर्भ में कई प्रयास किए जा रहे हैं। देश में वनों के कटाव को रोकने के लिए वर्ष 2015 एवं 2017 के बीच देश में पेड़ एवं जंगल के दायरे में 8 लाख हेक्टेयर भूमि की वृद्धि दर्ज की है। साथ ही, भारत ने वर्ष 2030 तक 2.10 करोड़ हेक्टेयर जमीन को उपजाऊ बनाने के लक्ष्य को बढ़ाकर 2.60 करोड़ हेक्टेयर कर दिया है ताकि वनों के कटाव को रोका जा सके।

भारत में संपन्न वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में अनुसूचित जनजातियों की कुल जनसंख्या 10.43 करोड़ है, जो भारत की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है। जनजाति समाज को देश के आर्थिक विकास में शामिल करने के उद्देश्य से केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा कई योजनाएं चलाई जा रही हैं ताकि इस समाज की कठिन जीवनशैली को कुछ हद्द तक आसान बनाया जा सके।  
(लेख में विचार निजी हैं)

प्रह्लाद सबनानी


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