सामयिक : जम्मू-कश्मीर का परिदृश्य

Last Updated 15 Oct 2024 12:43:49 PM IST

जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के परिणाम और उसके पूर्व की राजनीतिक ध्वनि में अंतर है। चुनाव पूर्व भड़काऊ बातें करने वाले फारुख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला केंद्र के साथ मिलकर चलने की बात कर रहे हैं।


सामयिक : जम्मू-कश्मीर का परिदृश्य

ऐसा लगता है कि चुनावी रणनीति में आक्रामक होकर अधिकाधिक सीटें लाओ और फिर शुतुरमुर्ग की तरह सिमट कर शासन चलाओ। चुनाव की घोषणा से लेकर अभियान तक यह साफ हो गया था कि जम्मू क्षेत्र में भाजपा प्रभावी है लेकिन कश्मीर में उसका जनाधार नहीं बढ़ा है।

दूसरी ओर नेशनल कांफ्रेंस का जनाधार कश्मीर के साथ जम्मू क्षेत्र में भी है। हालांकि जम्मू के 43 में से भाजपा को 29 सीटें मिलने से उनके समर्थकों को निराशा हो सकती है। सच्चाई व जमीनी वास्तविकता को नकारा नहीं जा सकता। वैसे तीन-चार सीट भाजपा काफी काम अंतर से हारी है। चूंकि जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 समाप्त होने एवं संक्रमणकालीन व्यवस्था के तहत केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव था इसलिए भी इसको इसके परिणाम के देखने के दृष्टिकोण में अंतर हो सकता है। भाजपा समर्थको एवं कश्मीर की क्षेत्रीय पार्टयिों के स्वाभाविक विरोधियों के अंदर निराशा इसलिए है कि वहां के लोग ही खुलकर बता रहे थे कि 370 हटाने के बाद जम्मू-कश्मीर का प्रधानमंत्री मोदी सरकार ने जितना विकास किया उसकी पहले कल्पना नहीं थी।

आतंकवाद के भय से सहमे रहने वाले दूरस्थ इलाकों तक भी विकास पहुंचा, स्थानीय निकायों के चुनाव से निचले स्तर पर विकास एवं कल्याणकारी कार्यक्रमों में भागीदारी बढ़ी, शिक्षण संस्थान सुचारू रूप से चलने लगे, सांस्कृतिक गतिविधियां, खेलकूद आदि सामान्य गतिविधियों की तरह हो गए जिनकी पिछले तीन दशक से कल्पना भी नहीं थी। यह सच है कि भाजपा ने ब्लॉक डेवलपमेंट काउंसिल, डिस्टिक डेवलपमेंट काउंसिल और 2021 में पंचों एवं सरपंच के चुनाव कराए। बावजूद कश्मीर में उसका खाता न खुलना चिंता का विषय होना चाहिए। किंतु इसे अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता। भाजपा जम्मू में 41 तथा कश्मीर में 19 सीटों यानी कुल 60 स्थानों पर चुनाव लड़ा।

पार्टी ने पहली बार 23 मुस्लिम प्रत्याशी दिए। दूसरी ओर कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस का गठबंधन में कांग्रेस 32 और नेकां 51 पर चुनाव लड़े और तथा 5 सीटों पर दोनों के बीच मुकाबला था। प्रदेश में पूर्व कांग्रेसी नेता गुलाम नबी आजाद की डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आजाद पार्टी, अल्ताफ बुखारी की जम्मू कश्मीर अपनी पार्टी, सज्जाद लोन की पीपुल्स कांफ्रेंस, आतंकवाद के वित्त पोषण के मामले में जेल में बंद इंजीनियर राशिद की अवामी इत्तेहाद पार्टी आदि मैदान में थे। महबूबा मुफ्ती की पीडीपी तो खैर थी ही। जम्मू क्षेत्र के बारे में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वहां एक तिहाई आबादी मुस्लिम है। केवल चार जिले जम्मू, कठुआ, सांभा और उधमपुर में हिंदू बहुमत में हैं। जम्मू कश्मीर आतंकवादी, अलगाववादी हिंसा की अस्थिर स्थिति में लंबे समय से रहा। उसमें 370 हटाने के बाद परिस्थितियों को एकाएक सामान्य करना तथा प्रशासनिक व राजनीतिक-सामाजिक सांस्कृतिक-गतिविधियों से लोगों तक पहुंचकर उन्हें समझा पाना असंभव था।  उतना बड़ा कदम, जो अकल्पनीय था तथा लंबे समय की यथास्थिति को एकाएक धक्का देकर प्रदेश को आमूल रूप से बदलने का कदम था।

भाजपा घाटी में कहीं थी नहीं और मुसलमानों के बीच उसे लेकर हमेशा गलतफहमी बनाई गई। भाजपा स्थापित की गई भारत की अखंडता सिद्धांत के विपरीत धारणा के विरुद्ध रही है। इस विचार की सहयात्री नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस वहां की स्थापित पार्टयिां रही हैं। बाद में पीडीपी भी मुख्य पार्टी बन गई और इनका जनाधार दोनों क्षेत्रों में रहा है। उनको काट पाना आसान नहीं था। हालांकि कांग्रेस जम्मू-कश्मीर से समाप्त पार्टी साबित हुई क्योंकि उसे 5 सीटें घाटी से मिली जिनके कारण नेशनल कांफ्रेंस के साथ गठबंधन है और एक सीट केवल पीर पंजाल से। बाकी जम्मू में वह कहीं भी जनाधार साबित नहीं कर पाई। दरअसल, कांग्रेस का अपना हमेशा एक अलग जनाधार जम्मू और घाटी दोनों क्षेत्रों में रहा है जो इस चुनाव में लगभग खत्म है।

अगर नेशनल कांफ्रेंस के साथ गठबंधन नहीं होता तो संभव था उसे सीटें नहीं आती। पीडीपी केवल 8.7 फीसद मत आने वाली पार्टी रह गई और उसके बाद एकमात्र एनपी है जिसे 1 प्रतिशत से अधिक मत मिले। अन्य सभी पार्टयिों को इनसे कम मत मिला है। भाजपा का यह आज तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन है। हालांकि यह चिंता का विषय है कि धारा 370 हटाने के बाद आम आदमी भी मीडिया में बोल रहे थे कि उन्हें शासन में भागीदारी का अवसर मिला, शैक्षिक-सांस्कृतिक-खेलकूद आदि गतिविधियां बढ़ी, विकास के जबरदस्त काम हुए, लेकिन ये भाजपा को मत देने के लिए तैयार नहीं थे। कश्मीर की मुस्लिम पहचान की विरोधी पार्टी की छवि के साथ पूरे देश में इस समय मुसलमानों की सामूहिक प्रवृत्ति भाजपा के विरुद्ध मतदान की है। इसी कारण सभी मतदाताओं ने लगभग रणनीतिक मतदान किया। विकल्प के रूप में नेशनल कांफ्रेंस ही मजबूत दिख रही थी। इसीलिए प्रभावी निर्दलीय और शेष दल वहां नकारे गए।

नेशनल कांफ्रेंस सहित सभी पार्टयिों ने अलगाववादी वायदे किए थे जिनमें धारा 370 की वापसी, 1954 के पहले की स्थिति की बहाली, राजनीतिक कैदियों की रिहाई, उन सारे कानूनों को समाप्त करना जो जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति को प्रभावित करते हैं, भूस्वामित्व संबंधी बदले कानूनों का अंत, पाकिस्तान के साथ बातचीत आदि  शामिल थे। अब नेशनल कांफ्रेंस कांग्रेस की सरकार बन रही है तो देखना होगा अपने वादों को लेकर वो कितना आगे बढ़ते हैं। बढ़ते भी हैं या नहीं। केंद्र शासित प्रदेश होने के कारण ज्यादातर मामलों में उन्हें उपराज्यपाल की स्वीकृति की आवश्यकता होगी। इसलिए आसानी से अलगाववादी कट्टर मजहबी एजेंडा या पाकिस्तान परस्त विषयों को शामिल करना कठिन होगा या कहें कि असंभव होगा। इसलिए उमर के नेतृत्व वाली सरकार के रीति-नीति व्यवहार तथा भविष्य के राजनीतिक समीकरणों का स्पष्ट स्वरूप आने में थोड़ा समय लगेगा।
(लेख में विचार निजी हैं)

अवधेश कुमार


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