जंगली जानवर : न उजाड़ें नैसर्गिक संरचनाओं को

Last Updated 15 Oct 2024 12:37:50 PM IST

ऐसा कहा जाता है कि बरसात के मौसम में जंगल में मंगल होता है। घने वन झूमते हैं और हर जानवर के लिए पर्याप्त भोजन होता है, लेकिन इस बार अकेले उत्तर प्रदेश ही नहीं देश के अलग-अलग हिस्सों में तेंदुए ऐसे मौसम में बस्ती की तरफ आ रहे हैं और उनकी भिड़ंत इंसान से हो रही है।


जंगली जानवर : न उजाड़ें नैसर्गिक संरचनाओं को

मुरादाबाद- अमरोहा के सैकड़ों  किसान तेंदुए के डर से खेत नहीं जा रहे तो लोगों ने दिन में भी जंगल या एकांत से गुजरना छोड़ दिया है। हापुड़ और मेरठ में भी घनी बस्ती में तेंदुआ पालतू जानवरों का शिकार कर चुका है।  बिजनौर में तेंदुआ 25 से अधिक जान ले चुका है। पीलीभीत के आसपास एक हजार से अधिक तेंदुओं के घूमने की बात जंगल महकमा कह रहा है। उत्तर प्रदेश में तो भेड़िये, सियार, कुछ जगह गुलदार और बाघ के कारण लोगों में दहशत है, लेकिन असम, राजस्थान ,  हिमाचल प्रदेश से भी तेंदुए के गांवों तक आने की खबर को सामान्य नहीं माना जा सकता।

यह सच है कि जंगलों में बाघ की संख्या बढ़ने से तेंदुओं को पलायन करना पड़ रहा है, लेकिन बरसात में पलायन का बड़ा कारण बदलता मौसम है। तेंदुए जैसे जानवर को क्या जलवायु अपरिवर्तन से जूझने में दिक्कत हो रही है? यह सच है कि जब जंगल का जानवर बस्ती में दिखता है तो इंसान में भी डर की भावना आती है।  एक तो समझना होगा कि तेंदुआ बस्ती की तरफ या क्यों रहा है, दूसरा यह स्वीकार करना होगा कि कोई भी जानवर इंसान पर हमला करने के लिए गांव-शहर में आता नहीं, फिर इस बात का ऐसा निदान खोजा जा सकता है कि प्रकृति की यह सुंदर देन अपने नैसर्गिक पर्यवास में निरापद रहे।

चीता हमारे सामने उदाहरण है कि आजादी के बाद कैसे वह हमारे देश से लुप्त हुआ था। आज भले ही तेंदुए की संख्या पर्याप्त है, लेकिन जब उसका इंसान से टकराव बढ़ेगा तो जाहिर है कि उसके प्रजनन, भोजन, पर्यवास सभी पर कुप्रभाव पड़ेगा, खासकर जब जलवायु परिवर्तन की मार अब जानवरों पर बुरी तरह से पड़ रही है। यह बात गौर करने की है कि कुछ साल पहले तक तेंदुए के शावक जनवरी से मार्च तक दिखाई देते थे, लेकिन इस बार भारी बरसात में अर्थात जुलाई में जगह-जगह शावक दिख रहे हैं। जाहिर है कि  बदलते मौसम ने तेंदुए के प्रजनन काल में बदलाव कर दिया है।

हो यह रहा है कि बाघ के कारण तेंदुए जंगल छोड़ने पर जब मजबूर होते हैं तो वे बस्ती-शहर के पास डेरा डालते हैं, जहां तापमान बढ़ने का कुप्रभाव सबसे अधिक है और इस ने उनक काई मूल स्वभाव में परिवर्तन ला दिया है। घने जंगल कम होने से  तेंदुए के इलाके में बाघ का कब्जा हो गया और जब पानी और घास पर जीने वाले जीव, जोकि  मांसाहारी जानवरों के भोजन होते हैं, उनकी पर्याप्त संख्या होने के बावजूद तेंदुए को अधिक गरम इलाके में आना पड़ रहा है। जान लें कि जंगल का जानवर इंसान से सर्वाधिक भयभीत रहता है और वह बस्ती में तभी घुसता है जब वह पानी या भोजन की तलाश में बेहाल हो जाए। चूंकि तेंदुआ कुत्ते से लेकर मुर्गी तक को खा सकता है अत: जब एक बार लोगों की बस्ती की राह पकड़ लेता है तो सहजता से शिकार मिलने के लोभ में बार-बार यहां आता है। घने जंगल में  बिल्ली मौसी के परिवार के बड़े सदस्य बाघ का कब्जा होता है और इसीलिए परिवार के छोटे सदस्य जैसे तेंदुए या गुलदार बस्ती की तरफ भागते हैं।

विडंबना है कि जंगल के संरक्षक जानवर हों या फिर खेती-किसानी के सहयोगी मवेशी, उनके  के लिए पानी या भोजन की कोई दूरगामी नीति नहीं है। तेंदुआ एक अच्छा शिकारी  तो है ही, किसी  इलाके के पारिस्थितिकी तंत्र की गुणवत्ता का मानक चिह्न भी होता है। दुर्भाग्य है कि आज इसका अस्तित्व ही खतरे में है। जंगली बिल्लियों के कुनबे के मूलभूत गुणों से विपरीत इनका स्वभाव हालात के अनुसार खुद को ढाल लेने का होता है। जैसे कि ये चूहों और साही से लेकर बंदरों और कुत्तों तक किसी भी जानवर का शिकार कर सकते हैं। वे गहरे जंगलों और मानव बस्तियों के पास पनप सकते हैं। यह अनुकूलन क्षमता, इन्हें कहीं भी छिपने और इंसान के साथ जीने के काबिल बना देती है, लेकिन जब तेंदुए जंगलों के बाहर उच्च मानव घनत्व वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं, तो हमें लगता है कि वे भटक गए हैं।

हम भूल जाते हैं कि यह उनका भी घर है, उतना ही हमारा भी है। तेंदुआ अपना जंगल छोड़ कर यदि लंबी यात्रा करता है तो उसका कारण भोजन के अलावा अपनी यौन क्रिया के लिए साथी तलाशना होता है। तेंदुए को यदि एक बार इंसान के खून की लत लग जाए तो यह खतरनाक होता है।  जंगल का अपने एक चक्र हुआ करता था। जंगलों की अंधाधुंध कटाई और उसमें बसने वाले जानवरों के प्राकृतिक पर्यवास के नष्ट होने से इंसानी दखल से दूर रहने वाले जानवर सीधे मानव के संपर्क में आ गए। यदि इंसान चाहता है कि वह तेंदुए जैसे जंगली जानवरों का निवाला ना बने तो जरूरत है कि नैसर्गिक जंगलों को  छेड़ा ना जाए, जंगल में इंसानों की गतिविधियों पर सख्ती से रोक  लगे। खासकर जंगलों में नदी-नालों को खनिज या रेत उत्सर्जन के नाम पर नैसर्गिक संरचनाओं को उजाड़ा न जाए। 

पंकज चतुर्वेदी


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