वृद्धजन दिवस : ढलती सांझ में न हों उपेक्षित
भारतीय संस्कृति में सदा से ही बड़ों के आदर-सम्मान की परम्परा रही है, लेकिन आज दुनिया के अन्य देशों सहित हमारे देश में भी वृद्धजनों पर बढ़ते अत्याचार की खबरें समाज के लिए गंभीर चिंता का विषय बन गई हैं।
वृद्धजन दिवस : ढलती सांझ में न हों उपेक्षित |
समृद्ध परिवार होने के बावजूद घर के बुजुर्ग वृद्धाश्रमों में जीवन-यापन करने को विवश हैं। बहुत से मामलों में बच्चे ही उन्हें बोझ मानकर वृद्धाश्रमों में छोड़ आते देते हैं। जबकि यह उम्र का ऐसा पड़ाव होता है, जब उन्हें परिजनों के अपनेपन, प्यार और सम्मान की सबसे ज्यादा जरूरत होती है।
बुजुर्गों के प्रति वैसे तो सभी के हृदय में हर पल, हर दिन सम्मान का भाव होना चाहिए, लेकिन दिल में छिपे इस सम्मान को व्यक्त करने के लिए औपचारिक तौर पर यह दिन निश्चित किया गया। 1991 में ‘अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस’ की शुरुआत के बाद वर्ष 1999 को पहली बार ‘बुजुर्ग वषर्’ के रूप में भी मनाया गया था। इस वर्ष ‘अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस’ ‘गरिमा के साथ वृद्धावस्था दुनियाभर में वृद्ध व्यक्तियों के लिए देखभाल और सहायता पण्रालियों को मजबूत करने का महत्व’ विषय के साथ मनाया जा रहा है। इस विषय के बारे में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस का कहना है कि आइए, हम देखभाल और सहायता पण्रालियों को मजबूत करने के लिए प्रतिबद्ध हों, जो वृद्धजनों और देखभाल करने वालों की गरिमा का सम्मान करती हों।
भारतीय समाज में सयुंक्त परिवार को हमेशा से अहमियत दी गई है, लेकिन आज के बदलते परिवेश में छोटे और एकल परिवार की चाहत में संयुक्त परिवार की अवधारणा खत्म होती जा रही है। यही कारण है कि लोग अपने बुजुगरे से दूर होते जा रहे हैं और नई पीढ़ी दादा-दादी, नाना-नानी के प्यार से वंचित होती जा रही है। एकल परिवार के बढ़ते चलन के कारण ही परिवारों में बुजुगरे की उपेक्षा होने लगी है। न चाहते हुए भी बुजुर्ग अकेले रहने को मजबूर हैं। इसका एक गंभीर परिणाम यह देखने को मिला है कि बुजुगरे के प्रति अपराध भी तेजी से बढ़े हैं। शहरों-महानगरों में आए दिन बुजुगरे को निशाना बनाए जाने की खबरें दहला देती हैं। दूसरा गंभीर परिणाम यह कि बच्चों को बड़े-बुजुगरे का सानिध्य नहीं मिलने के कारण उनके जीवन पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। एक सर्वे के अनुसार दादा-दादी या नाना-नानी के साथ रहने वाले बच्चों का विकास अकेले रहने वाले बच्चों की तुलना में कहीं ज्यादा अच्छा और मजबूत होता है और ऐसे बच्चों में आत्मविश्वास भी अधिक देखने को मिला है।
आज पति-पत्नी दोनों ही कामकाजी हैं, ऐसे में बच्चे घर में अकेले रहते हैं और कम उम्र में ही उनमें अवसाद जैसी समस्याएं पनपने लगती हैं। वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार ने हालांकि वर्ष 1999 में एक राष्ट्रीय नीति बनाई थी तथा उससे पहले वर्ष 2007 में माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण विधेयक भी संसद में पारित किया गया था, जिसमें माता-पिता के भरण-पोषण, वृद्धाश्रमों की स्थापना, चिकित्सा सुविधा की व्यवस्था और वरिष्ठ नागरिकों के जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा का प्रावधान था, लेकिन इसके बावजूद देशभर में वृद्धाश्रमों में बढ़ती संख्या इस तथ्य को इंगित करती है कि भारतीय समाज में वृद्धों को उपेक्षित किया जा रहा है। कुछ समय पहले 96 देशों में कराए गए एक सर्वे के बाद ‘ग्लोबल एज वॉच इंडेक्स’ जारी किया गया था। उस सूचकांक के मुताबिक करीब 44 फीसद बुजुगरे का मानना था कि उनके साथ सार्वजनिक स्थानों पर र्दुव्यवहार किया जाता है जबकि 53 फीसद बुजुगरे का कहना था कि समाज उनके साथ भेदभाव करता है।
आर्थिक समस्या से जूझते वृद्धों के लिए लगभग सभी पश्चिमी देशों में पर्याप्त पेंशन की व्यवस्था है। भारत में भी वृद्धावस्था पेंशन की सुविधा है, मगर उनके सामने स्वास्थ्य समस्याओं के अलावा अकेलेपन की जो समस्या है, उसका इलाज नहीं है। यह अकेलापन वृद्धजनों को भीतर ही भीतर सालता रहता है। हालांकि केंद्रीय कैबिनेट द्वारा पिछले दिनों 70 वर्ष या उससे अधिक आयु के सभी वगरे के लोगों को आयुष्मान भारत योजना में शामिल करने का निर्णय लिया गया है, जिसके तहत वृद्धजनों को पांच लाख रु पए तक का मुफ्त इलाज मिलेगा। निश्चित रूप से यह कदम वृद्धजनों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को सुलभ बनाएगा और इससे देश में करीब साढ़े चार करोड़ परिवारों को लाभ होने की उम्मीद है। लेकिन बुजुगरे के मामले में कई बार चिंताजनक स्थिति यह होती है कि बीमारी के समय में भी सांत्वना देने वाला उनका कोई अपना उनके पास नहीं होता। हालांकि आज कुछ ऐसी संस्थाएं हैं, जो एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे वृद्धों के लिए निस्वार्थ भाव से काम कर रही हैं, लेकिन ये संस्थाएं भी अपनों की महसूस होती कमी की भरपाई तो नहीं कर सकती। बहरहाल, वृद्धजनों को अपने परिवार में भरपूर मान-सम्मान मिले, इसके लिए सामाजिक जागरूकता जैसी पहल की सख्त दरकार है ताकि वृद्धों के प्रति परिजनों की सोच सकारात्मक होने से बुजुगरे के लिए वृद्धाश्रम जैसे स्थानों की समाज में आवश्यकता ही महसूस नहीं हो।
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