उत्तराखंड : विकास मापने का नया आधार

Last Updated 17 Aug 2024 01:35:27 PM IST

जुलाई के तीसरे सप्ताह में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने उत्तराखंड सकल पर्यावरण उत्पाद सूचकांक (जीईपी) लॉन्च किया। इसका सरल अर्थ है कि उत्तराखंड जैसे संवेदनशील क्षेत्र में विकास कार्य से पहले मूल्यांकन करके जल, जंगल, जमीन, वायु पर उसके प्रभाव का आकलन होगा।


उत्तराखंड : विकास मापने का नया आधार

यदि विपरीत प्रभाव की अधिक संभावनाएं होंगी तो निश्चित ही उसको रोकना भी पड़ेगा। यही बात 2007 की केंद्रीय पुनर्वास नीति में भी लिखी गई है।   

5 जून, 2021 को तत्कालीन मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने भी यही ऐलान किया था कि उत्तराखंड पहला राज्य होगा जहां विकास को मापने के लिए जीईपी लागू किया जाएगा। इससे पहले पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक ने भी यह आासन दिया था क्योंकि उत्तराखंड हिमालय में तेजी से भोगवादी विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का विनाश हो रहा है, उसे रोकने के लिए छोटे-बड़े आंदोलन चलते रहते हैं।

इसके बावजूद अब हर वर्ष सकल पर्यावरण उत्पादन में हम कहां खड़े हैं उसका मूल्यांकन करके जीडीपी के साथ जीईपी का लेखा-जोखा भी राज्य को प्रस्तुत करना पड़ेगा। यह किसी एक राज्य के लिए ही नहीं अपितु देश के लिए भी स्वागतयोग्य कदम है, लेकिन इससे एक गंभीर आशंका भी पैदा होती है। यह कि संबंधित विभागों से प्रस्तावित विकास से पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों के मूल्यांकन का आधार क्या होगा? क्या कोई मॉनिटरिंग प्रणाली होगी? यह भी कहा जा रहा है कि राज्य द्वारा 95,112 करोड़ के लगभग दी जाने वाली पारिस्थितिकीय सेवाएं क्या हरियाली बचाने वाले निवासियों को लाभ प्रदान करेंगी या सिर्फ  केंद्र से बजट का दावा पेश किया जाएगा। नीति आयोग इस विषय पर किस आधार पर फैसला लेगा? इन सब के उत्तर भविष्य के गर्त में छिपे हैं।

वैसे भी समझने के लिए यह पर्याप्त है कि उत्तराखंड के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल में से 71 प्रतिशत वन भूमि के अधीन है, जबकि सघन वन 40 प्रतिशत से अधिक नहीं है। लेकिन राज्य सरकार यही कह रही है कि जीईपी सूचकांक के आधार पर ग्रीन बोनस और केंद्र की सहायता लेने में यह लाभकारी साबित होगा। प्रति वर्ष जीईपी सूचकांक प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी उत्तराखंड के प्रमुख सचिव (वन) को दी गई है। इसका आंकलन मानवजनित और प्राकृतिक गतिविधियों के आधार पर होगा जिसमें जंगल, हवा, पानी, मृदा पर लगातार परिवर्तन जैसे-जंगल के संबंधित सूचकांक के लिए विभिन्न वर्षो में वन विभाग द्वारा रोपे गए पौधों की संख्या और इन्हीं प्रजातियों के वृक्षों के पातन की संख्या के आधार पर आंकड़े एकत्रित किए जाएंगे।

इसमें यह भी पता हो पाएगा कि पातन के दौरान छोटी-छोटी वनस्पतियां, जीव-जंतु बुरी तरह प्रभावित होते हैं, लेकिन क्या हर वर्ष भीषण आग से जल रहे जंगल और रोपे गए पौधों के सापेक्ष प्राकृतिक वन संपदा की व्यावसायिक कटाई का मूल्यांकन करना आसान होगा? क्योंकि जिन पेड़ों को उसी वर्ष लगाया गया और यह मान लेंगे कि इतने ही इसी प्रजाति के पेड़ काटे गए तो यह अधूरी जानकारी होगी क्योंकि उत्तराखंड में हर साल चीड़, देवदार, कैल आदि प्रजातियों का बड़े पैमाने पर कटान हो रहा है।

मृदा के बारे में संभव है कि बड़े निर्माण कार्यों से बेतरतीब ढंग से काटे जा रहे पहाड़ों से खिसक रही मिट्टी को सीधे नदियों में डाला जाता हो और कहीं भी मिट्टी को पुन: उपयोग में लाने के लिए डंपिंग जोन नहीं है जिसके ऊपर पौधे रोपे जा सकते थे। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक मिट्टी की बर्बादी का मूल्यांकन संभव नहीं। जल के मामले में उपलब्ध जल की गुणवत्ता और मात्रा में तेजी से बढ़ रहे प्रभाव का सबसे जीता जागता उदाहरण तो यही है कि पहाड़ी भू-भाग में भी 60 प्रतिशत जल स्रेत सूख चुके हैं, जिसके एवज में जो भी जल संरचनाएं बनी हैं, क्या उन्हें प्राकृतिक जल स्रेतों के समान स्वीकार किया जा सकता है? और कोई भी विकास संरचना यदि जल स्रेतों को बर्बाद करती है तो उसे न्यूनतम करने के क्या तरीके होंगे। जंगल के बारे में भी कहा जा सकता है कि विकास के नाम पर न्यूनतम वनों को ही नुकसान हो।

भौगोलिक संरचना के आधार पर विकास की संरचना निर्धारित हो। भारी-भरकम परियोजनाओं से हिमालय के प्राकृतिक संसाधनों का विनाश नहीं रोक पाएंगे तो जीईपी की हालत जीडीपी जैसी होगी। सकल पर्यावरण उत्पाद की मांग करने वाले पद्मभूषण डॉ. अनिल प्रकाश जोशी मानते हैं  कि उत्तराखंड में .9 प्रतिशत जीईपी है, जिसे 4-5 तक ले जाना पड़ेगा। लेकिन राज्य व्यवस्था तो फंड के लिए मजबूत हथियार के रूप में इसे देख रही है जबकि ग्रीन बोनस की मांग करने वाले पर्यावरणविद् जगत सिंह ‘जंगली’ और रक्षा सूत्र आंदोलन की टीम का कहना है कि रसोई गैस पर लोगों को आधी से अधिक सब्सिडी दी जानी चाहिए। जल पुरु ष राजेंद्र सिंह कहते हैं कि पर्यावरणीय आर्थिकी वहां होगी जहां लोग अहिंसक होंगे।

सुरेश भाई


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