स्वतंत्रता दिवस : भारतीय स्वाभिमान का पर्व

Last Updated 15 Aug 2024 01:37:22 PM IST

दुनिया के गणतंत्रों में भारत प्राचीनतम गणतंत्रों में से एक है। यहां के मथुरा, पद्मावती और त्रिपुरी जैसे अनेक हिन्दू राष्ट्र दो से तीन हजार साल पहले तक केंद्रीय सत्ता से अनुशासित लोकतांत्रिक गणराज्य थे।


स्वतंत्रता दिवस : भारतीय स्वाभिमान का पर्व

केंद्रीय मुद्रा का भी इनमें चलन था लेकिन भक्ति, अतिरिक्त उदारता, सहिष्णुता, विदेशियों को शरण, वचनबद्धता जैसे भाव और आचरण कुछ ऐसे उदात्त गुणों वाले दोष रहे जिनकी वजह से भारत विरोधाभासों, विडंबनाओं और चुनौतियों के ऐसे देश में बदलता चला गया कि राजनीति का एक पक्ष समस्याओं को यथास्थिति में रखने की पुरजोर पैरवी करने लग गया था। नतीजतन, देश का पतन हुआ। कई सामंतों ने अपने पड़ोसी सामंत को ध्वस्त करने की दृष्टि से इस्लाम धर्मावलंबी आक्रांताओं को भी बुलाने में संकोच नहीं किया। कुछ ऐसे ही हालात हम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के तीसरे कार्यकाल में देख रहे हैं। विपक्ष संविधान पर संकट बता कर थोड़ा ताकतवर क्या हुआ कि हर उस बुराई को संरक्षण देने में लग गया जो देश को संकट में डालने वाली है। संसद में जो हालात देखने में आ रहे हैं, यदि यही बने रहे तो देश की अखंडता को भी हानि हो सकती है। बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों के संदर्भ में जो राष्ट्रीय नागरिकता पत्रक की सूची आई है, उसमें यही देखने में आ रहा है। विपक्षी दलों के ऐसे स्थायी भाव के चलते चुनौतियों से निपटना और आजादी के बाद अनुत्तरित रह गए प्रश्नों के सार्थक हल खोजना मुश्किल होता जा रहा है, जबकि  घुसपैठिए भारतीय मूल के लोगों के संसाधन और प्राकृतिक संपदा हड़पते जा रहे हैं।  

नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 को इस नाते बड़ी उम्मीद से अस्तित्व में लाया गया था, लेकिन उस पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। इसी तरह कश्मीर में अनुच्छेद-370 और 35-ए खत्म करने के बाद कश्मीर का बहुलतावादी चरित्र बहाल करने की उल्लेखनीय कोशिश की गई है। इससे अलगाववाद- आतंकवाद नियंत्रित हुए हैं और कश्मीर में पर्यटन से रोजगार-धंधे के उपाय बढ़े हैं लेकिन विपक्ष और लोकतंत्र का मुखौटा ओढ़े रहने वाले कश्मीरी अलगाववादी नेता इस पर भी सवाल खड़े करने लगे हैं। कांग्रेस और विपक्ष अलगाववादियों की इस भाषा पर अक्सर मौन दिखाई देता है। विपक्ष कश्मीर के उन विस्थापित पांच लाख लोगों के पुनर्वास पर भी मुंह बंद रखता है, जो 35 साल से शिविरों में दरिद्रता का जीवन जीने को मजबूर हैं।

ऐसे में इस लोकतंत्र की संप्रभुता कैसे और कब तक अखंडित रह पाएगी जबकि देश की अखंडता और जनसांख्यकीय घनत्व को संतुलित बनाए रखने के लिए जनसंख्या नियंत्रण और समान नागरिक संहिता कानून अनिवार्य रूप से लागू किया जाना जरूरी है। आरक्षण को लेकर लोक सभा चुनाव में सवाल उठाया गया कि भाजपा गठबंधन को 400 सीटें मिल गई तो वह संविधान को बदल कर दलित, आदिवासी और पिछड़ों को मिलने वाले आरक्षण को खत्म कर देगी जबकि हकीकत यह है कि कर्नाटक सरकार ने पिछड़ों के कोटे में मुसलमानों को चार प्रतिशत आरक्षण देने की संविधान विरोधी कोशिश हुई। संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण देने का कोई प्रावधान नहीं है। अतएव कहा जा सकता है कि संविधान की भावना पर सबसे ज्यादा कुठाराघात कांग्रेसी सरकारों में हुआ है।  

स्वतंत्रता संग्राम को भारतीय स्वाभिमान की जागृति का संग्राम भी कहा जाता है। राजनीतिक दमन और आर्थिक शोशण के विरुद्ध लोक-चेतना का यह प्रबुद्ध अभियान था। यह चेतना उत्तरोत्तर ऐसी विस्तृत हुई कि समूची दुनिया में उपनिवेशवाद के विरु द्ध मुक्ति का स्वर मुखर हो गया। परिणामस्वरूप भारत की आजादी एशिया और अफ्रीका की भी आजादी लेकर आई। भारत के स्वतंत्रता समर का यह एक वैश्विक आयाम था, जिसे कम ही रेखांकित किया जाता है। इसके बनिस्बत फ्रांस की क्रांति की बात कही जाती है। निसंदेह इसमें समता, स्वतंत्रता एवं बंधुता के तत्व थे, लेकिन एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका की अवाम उपेक्षित थी।

गांधी का ही विचार था, जो सम्रगता में भारतीय हितों की चिंता करता था। इसी परिप्रेक्ष्य में दीनदयाल उपध्याय ने एकात्म मानववाद और अंत्योदय के विचार दिए जो संसाधनों के उपयोग से दूर अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के उत्थान की चिंता करते हैं। कमोबेश इन्हीं भावनाओं के अनुरूप डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान को आकार दिया। इसीलिए जब हम 75 साल पीछे मुड़कर संवैधानिक उपलब्धियों पर नजर डालते हैं, तो संतोष होता है। प्रजातांत्रिक मूल्यों के साथ राष्ट्र-राज्य की व्यवस्थाएं जीवंत हैं। बीच-बीच में आपातकाल जैसी अतिरेक और अराजकता भी दिखाई देती है, लेकिन अंतत: मजबूत संवैधानिक व्यवस्था के चलते लंबे समय तक ये स्थितियां गतिशील नहीं रह पातीं।

यही कारण है कि प्रजातंत्र, समता, न्याय और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के साथ विधि का शासन अनवरत है। भारत की अखंडता एवं संप्रभुता स्थापित करने की दृष्टि से सरदार पटेल जैसे लोगों ने कूटनीतिक कड़ाई से 600 से भी ज्यादा रियासतों का विलय कराया। हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर रियासतों का विलय हुआ। जमींदारी उन्मूलन और भूमि-सुधार हुए। सर्वोदयी नेता विनोबा भावे ने सामंतों की भूमि को गरीब और वंचितों में बांटने का उल्लेखनीय काम किया। पुर्तगाल और फ्रांस से भी भारतीय भूमि को मुक्त कराया। गोवा आजाद हुआ और सिक्किम का भारत में विलय हुआ।

लेकिन लगता है कि संविधान की प्रस्तावना के उदात्त आदर्श और उद्देश्य पूरे नहीं हुए हैं। गोया राजनीति त्याग, समता, अपरिग्रह और जनसेवा की भावना से प्रेरित होने की बजाय लाभकारी व्यवसाय, धनोपार्जन का माध्यम और सत्तासुख भोगने का साधन बनती जा रही है। भारतीय संविधान ने संसदीय प्रणाली को स्वीकार किया, जिसमें समस्त निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों और मंत्रियों के पवित्र उत्तरदायित्व की परिकल्पना है। साफ है, संविधान निर्माताओं ने ऐसी संकल्पना कतई नहीं की थी, जिसमें मंत्रियों के दायित्व में आम आदमी और बुनियादी प्रश्न बहिष्कृत होते चले जाएं। अधिकार और कर्त्तव्य की यह ऐसी विडंबना है, जो लोकतंत्र की बढ़ती उम्र के साथ जटिल होती जा रही है। इसी तात्कालिक लाभ की दृष्टि के चलते नेताओं की दलों के प्रति निष्ठा भंग हुई है। लिहाजा, चुनावी मौसम में दलबदलुओं के टिड्डी दल दिखाई देने लगते हैं। इसी कारण संसद और विधानसभाएं दलबदल और अस्थायी बहुमत का दंश झेलने को बाध्य हो रही हैं।

प्रमोद भार्गव


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