खेती-किसानी : कम भूमि में ज्यादा उपलब्धि

Last Updated 14 Jul 2024 12:53:20 PM IST

भारतीय कृषि मूलत: छोटे किसानों की कृषि है, और यदि छोटे किसान कृषि के आधार पर संतोषजनक आजीविका प्राप्त करते हैं तो इससे भारतीय कृषि संकट के समाधान के लिए उम्मीद बांती है।


खेती-किसानी : कम भूमि में ज्यादा उपलब्धि

इस दृष्टिकोण से इन पंक्तियों के लेखक ने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र आदि अनेक राज्यों में ऐसे छोटे किसानों तक पहुंचने का प्रयास किया जिनके प्रयास ऐसी उम्मीद की किरण देने में सक्षम हैं।

इस तरह का एक विशेष तौर पर उत्साहवर्धक प्रयास है, बालचंद्र अहिरवार नामक दलित किसान का जिन्होंने अपनी पत्नी गुड्डी, माता-पिता, भाइयों और परिवार के अन्य सदस्यों के सहयोग से जैविक खेती के माध्यम से संतोषजनक और टिकाऊ आजीविका का अनुकरणीय उदाहरण टीकमगढ़ जिले (मप्र) के जतारा ब्लॉक के लिाोराताल गांव में प्रस्तुत किया। बालचंद्र के पास मात्र 2 एकड़ कृषि भूमि है। उस भूमि का भरपूर उपयोग कर वे अनेक विविध फसलें प्राप्त करते हैं। उनकी रबी की मुख्य फसल गेहूं है और खरीफ की मुख्य फसल मूंगफली है जिनसे मुख्य खाद्य सुरक्षा और नकद आय प्राप्त होती है। पर इसके साथ उन्होंने सब्जी और फलों का बगीचा भी कुछ भूमि पर तैयार किया है और मुख्य फसलों के साथ अनेक अन्य फसलें मिश्रित खेती पद्धति से बो देते हैं और खेतों की मेढ़ों पर भी कुछ न कुछ फसल प्राप्त करते हैं।

इस तरह उनका खेत बहुत हरा-भरा रहता है और गर्मी की बहुत ताप से भी धरती बचती है। छाया और नमी से सूक्ष्म जीव और केचुएं बेहतर पनपते हैं। मात्र 2 एकड़ भूमि में वे गेंहू और मूंगफली के अतिरिक्त मक्का, मटर, चना, मसूर, मूंग, उड़द, सरसों, हल्दी, लहसुन, प्याज, आलू, टमाटर, बैंगन, तुरई, लौकी, पालक, धनिया, मेथी, खीरा, सेम, गाजर, फूलगोभी, रतालू, करेला, भिंडी, सेहजन की फली और  गेंदे के फूल लगाते हैं। फलों को देखें तो अमरूद, अनार, नींबू, आम, कटहल, लीची, संतरे, अनार, पपीते के पेड़ लगाए हैं। इस तरह 2 एकड़ भूमि के खेत को भली-भांति प्यार से पालते-पोसते हुए वे लगभग 44 खाद्य प्राप्त करते हैं।

यह खेती पूरी तरह जैविक है। इसमें किसी रासायनिक खाद और कीटनाशक दवा का कतई उपयोग नहीं होता। प्राकृतिक खाद को बालचंद्र अपने खेत पर स्वयं गोबर और गोमूत्र को थोड़े से बेसन और गुड़ के साथ विशेष अनुपात में मिला कर तैयार करते हैं। इसी तरह कीड़ों की रोकथाम के लिए गोबर, गोमूत्र के साथ तरह-तरह के कड़वे पत्तों को मिला कर एक छिड़काव तैयार किया जाता है। यह खाद और दवा बालचंद्र बड़ी मात्रा में तैयार करते हैं। पिछले वर्ष उन्होंने इस प्राकृतिक खाद और छिड़काव को 165 किसानों तक पंहुचाया। यह बड़े पैमाने पर तैयार करते के लिए ‘सृजन’ संस्था के सहयोग से बालचंद्र के खेत पर पलक प्राकृतिक कृषि एवं प्रशिक्षण केंद्र  की स्थापना की गई है।

यहां कृषकों को पावर टिलर, छिड़काव पंप आदि उपकरण भी प्राष्त होते हैं। बालचंद्र को सरकारी स्तर पर भी पुरस्कृत किया जा चुका है, और प्रशिक्षण कार्यक्रमों में वे सैकड़ों किसानों को प्राकृतिक खेती के अपने अनुभवों का लाभ दे चुके हैं। बालचंद्र को इस तरह की बहुत रचनात्मक खेती करने में बहुत आनंद आता है और वे जो बहुत मेहनत करते हैं, खुशी-खुशी करते हैं। विश्राम करते हुए भी वे यह सोचते हैं कि इस खेत या क्यारी या पेड़ को किस तरह से ठीक करना है। वे मानते हैं कि प्राकृतिक खेती के लिए ऐसे प्यार और निष्ठा के बिना सफलता नहीं मिलती। इस कृषि से बालचंद्र के परिवार का संतोषजनक निर्वाह होता है। अपने दोनों बेटों को वे छतरपुर और भोपाल में नर्सिग और  फाम्रेसी की उच्च शिक्षा भी दिलवा रहे हैं।

बालचंद्र को इस खेती में इतनी निष्ठा है कि वे अपने निवास को भी खेत में ही ले आए हैं। प्राकृतिक खेत के आरंभिक दिनों में कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने उनका मजाक उड़ाया पर आज वही व्यक्ति उन्हें सम्मान दे रहे हैं। बहुत सावधानी से बालचंद्र ने रासायनिक खाद, कीटनाशक, अत्यधिक मशीनीकरण के खचरे को दूर किया है। ट्रैक्टर के प्रति उनका मोह नहीं है और इसकी अपेक्षा बहुत सस्ते पावर टिलर में वे जुताई करते हैं। शराब, गुटखे हर तरह के नशे से सदा दूर रहते हैं। उनके पास चार गाय, चार बछड़े, चार बकरी और एक भैंस है। दूध का उपयोग घर-परिवार के पोषण के लिए करते हैं, बेचते नहीं हैं।

इन पशुओं से प्राप्त गोबर और गोमूत्र को भी वे उनकी बड़ी देन मानते हैं। बालचंद्र के लिए सबसे बड़ी समस्या पानी और प्रतिकूल होते मौसम की है। उनके पास एक छोटा सा कुआं है जिसमें कुछ बोर करवाना पड़ा क्योंकि पानी की कमी होती जा रही थी। इस वर्ष गर्मी का प्रकोप बढ़ने से भी समस्या आई। कभी सूखे तो कभी ओले का प्रकोप सहना पड़ता है। इसके बावजूद वे पूरी निष्ठा से खेती करते रहते हैं और उन्होंने अपने अनुभवों से समझाया कि जैविक खेती की फसल में इन विभिन्न तरह का प्रतिकूल मौसम रहने की क्षमता बेहतर होती है। इसके अतिरिक्तत प्राकृतिक खेती में प्रति एकड़ खर्च बहुत कम होता है और कर्ज व ब्याज के जाल से बचा जा सकता है।

बालचंद्र बताते हैं कि 2018 में उन्होंने रासायनिक खाद और कीटनाशक वाली खेती को छोड़कर प्राकृतिक खेती की ओर आना आरंभ किया। उनके अनुभव से पता लगता है कि इस तरह के बदलाव में लगभग तीन वर्ष का समय लग जाता है। स्वयं प्राकृतिक खेती को अपना कर अपने दोनों भाइयों को भी प्राकृतिक खेती की ओर लाए। जहां बालचंद्र ने प्राकृतिक खेती और टिकाऊ आजीविका का अनुकरणीय उदाहरण प्रास्तुत किया है वहां सृजन संस्था से जुड़े अनेक अन्य किसानों ने भी आसपास के गांवों में ऐसी ही खेती-किसानी की उपलब्धियां प्राप्त की हैं जिससे छोटे किसानों के लिए उम्मीद उत्पन्न होती है। इसी प्रखंड की बात करें तो पठारी गांव के कमलेश कुशवाहा ने लगभग 3 एकड़ और नंदराम पाल ने 4 एकड़ के खेत में प्राकृतिक खेती का उत्साहवर्धक उदाहरण प्रस्तुत किया है।

जहां एक ओर इन किसानों ने टिकाऊ आजीविका को मजबूत करने वाली खेती को आगे बढ़ाया है, वहीं पर्यावरण की रक्षा भी की है। बालचंद्र ने अपने खेत की मिट्टी खोद कर दिखाया कि इसमें कितने केचुएं और सूक्ष्म जीवन पनपते हैं और मिट्टी को भुरभुरा और उपजाऊ  बनाते हैं तथा किसान के अन्य मित्रों मधुमक्खियों और अनेक तरह के पक्षियों की उपस्थिति भी बढ़ गई है। दूसरी ओर, जब जहरीले कीटनाशक छिड़के जाते हैं तो इन पक्षियों और मित्र कीटों की, केचुओं और सूक्ष्म जीवों की बहुत क्षति होती है। मिट्टी के भुरभुरेपन से इसमें कार्बन सोखने की क्षमता बढ़ती है, और खेती में उनके आसपास खड़े पेड़ भी यह भूमिका निभाते हैं। इस तरह कार्बन डायाक्साइड और ग्रीन हाऊस गैसों को कम करने से जलवायु बदलाव का संकट भी कम होता है। रासायनिक खाद और कीटनाशक छाोड़ने से फॉसिल फ्यूल की खपत कम होती है।

भारत डोगरा


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